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________________ नाहटाजीने जैनधर्मका गहन अध्ययन किया है व जैनदर्शनको गहराईसे समझा है। उनके विचार बहुत ही सुलझे हुए है । वे अच्छे वक्ता हैं । मुझे अनेक अवसरोंपर उन्हें सुननेका मौका मिला है। वह गढ़से गूढ़ बातोंको भी सरलतासे स्पष्ट कर देते हैं। श्री नाहटाजीको उनकी विद्वत्ताके कारण आराके जैन भवनने सिद्धांताचार्य, अलीगढ़ के जैन मिशनने विद्या-वारिधि, महाकौशल मत्ति-पूजक संघने सिद्धांत-महोदधि, राजस्थानी संस्थाने साहित्य-वाचस्पति और साहित्य-तपस्वी आदि कई उपाधियोंसे विभूषित किया है। लेखन नाहटाजीका पेशा नहीं है। पेशेसे वे व्यापारी हैं। विद्या अर्जन व लेखनकी वृत्ति तो उन्हें प्रभुसे वरदानके रूपमें मिली है । वे खूब पढ़ते हैं और जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे कंजूसकी तरह दबाकर नहीं रखते, मुक्त भावसे पाठकोंमें वितरित करते हैं। नयीसे नयी पुस्तकोंके संग्रहकी उनमें अदम्य लालसा है। फलतः आज उनके संग्रहालयमें विभिन्न विषयोंकी हजारों पुस्तकें हैं। उससे भी बड़ी उनकी सेवा हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थोंका संकलन है। उनके ज्ञान-भण्डारमें मुद्रितसे भी अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । वे बड़े पारखी हैं। जौहरीकी भाँति उनकी निगाह ग्रन्थ-रत्नोंपर सहज ही पहुँच जाती है और वे उन्हें प्राप्त करके ही चैन लेते हैं। गम्भीर प्रकृतिके दिखाई देने वाले नाहटाजीका अन्तर बड़ा ही तरल है। वे बहुत ही मिलनसार व प्रेमल स्वभावके हैं। उनके हृदयमें वात्सल्यकी धारा निरन्तर प्रवाहित रहती है। जब कभी वे दिल्ली आते है तो यथासंभव बिना मिले नहीं जाते। भगवान महावीरके २५००वें निर्वाण-महोत्सवके प्रसंगमें तो हमलोग जाने कितनी बार मिले। मैंने देखा कि उनके मनमें अनेक योजनाएं घम रही थीं। वे चाहते थे, इस मंगल अवसरपर कुछ ठोस काम हो, कुछ बढ़िया ग्रन्थ प्रकाशित हों। वे जब भी मिलते, बड़े विस्तारसे चर्चा करते। मुझे यह देखकर बड़ा हर्ष हआ कि श्री नाहटाजी साम्प्रदायिकतासे परे हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर, तेरापन्थी और स्थानकवासी आम्नायोंके मतभेदोंमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। वे चाहते हैं कि विवादास्पद बातोंमें न उलझकर उन चीजोंको लिया जाय, जिनमें सभी आम्नायोंमें मतैक्य है। भगवान महावीरने तो जो कुछ कहा था, वह सम्पूर्ण मानव-जातिके लिए था, उनके समवसरणमें सभी लोग बिना भेदभाव एकत्रित होते थे, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों तकके लिए उनके द्वार खुले थे । श्री नाहटाजीकी सेवाएँ निःसन्देह सराहनीय हैं। अन्धकारमें पड़े इतिहासके न जाने कितने पृष्ठोंको वे प्रकाशमें लाये हैं और उनका यह सत्प्रयास निरन्तर चल रहा है। ऐसे बहतसे हस्तलिखित ग्रन्थोका, जो मन्दिरोंमें या भण्डारोंमें विस्मत पड़े थे, उन्होंने पाठकोंको परिचय कराया है और उनकी उपयोगिताको ओर समाजका ध्यान आकर्षित किया है। मेरी दृष्टि में यह नाहटाजीकी ऐसी सेवा है जिसके लिए जैन समाज ही नहीं, भारतीय समाज उनका चिर-ऋणी रहेगा। स्मरण रहे कि नाहटाजीने यह सेवा किसी स्वार्थ-भावसे नहीं की है-न पसेके लालचसे, और न यशकी इच्छासे । उनकी दृष्टि शुद्ध परमार्थकी रही है। प्रभुसे मेरी कामना है कि हमारे ये बन्धु दीर्घाय हों. स्वस्थ रहें और उनके हाथों समाज तथा देशकी आगे भी सतत् सेवा होती रहे । समाज इनका सदैव ऋणी रहेगा : ४०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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