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समाज इनका सदैव ऋणी रहेगा
श्री यशपाल जैन
लगभग ३५ वर्ष पहलेकी बात है, मैं उस समय कडलेश्वर ( मध्यप्रदेश )में रहा करता था। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी तथा मैं 'मधुकर' मासिक पत्र निकालते थे। उस पत्रके लिए बहुत-सी रचनाएँ आया करती थीं। एक दिन एक लिफाफा मिला। उसमें एक लेख था, लेखक थे श्री अगरचन्द नाहटा । यह नाहटाजीसे पहला सम्पर्क हुआ। प्राप्त लेख 'मधुकर में छाप दिया। फिर तो एकके बाद एक अनेक लेख उनके मुझे मिलते रहे।
उसके बाद मैं दिल्ली आ गया और 'जीवन साहित्य'का सम्पादन करने लगा। श्री नाहटाजीके लेख इस पत्रके लिए भी आने लगे। एक दिन देखता क्या हैं कि एक सज्जन मिलने आये । बंद गलेका कोट, दो लांगकी धोती. सिरपर पगडी, वर्ण श्यामल, कद ऊँचा. बडी-बडी मैंछे. वेश-भषासे एकदम मारवाड़ी लगते थे । बैठते ही बोले, "मेरा नाम अगरचन्द नाहटा है।" बंधुवर अगरचन्द नाहटासे यह मेरी पहली प्रत्यक्ष भेंट थी।
उनके लेख मुझे पसन्द आते थे। उनकी रुचि बड़ी व्यापक थी। इतिहास और शोधकी ओर उनका बड़ा झुकाव था और जो भी रचना वे भेजते थे, वह किसी ऐतिहासिक विषयसे सम्बन्धित अथवा शोधपर आधारित होती थी।
मुझे स्मरण है-उस पहली भेंटमें मैंने उनसे पूछा था, “आप शोधपूर्ण विषयोंपर इतने लेख कैसे लिख लेते हैं ?"
उन्होंने जो उत्तर दिया था, वह भी मैं भूल नहीं पाया हूँ। उन्होंने कहा था, "मुझे लिखनेका बहुत अभ्यास है । मैं दिनभर में १० लेख लिख सकता हूँ।"
उनकी इस बातसे जहाँ मुझे विस्मय हुआ, वहाँ उनके प्रति आदरकी भावना भी उत्पन्न हुई। व्यापार करते हुए कोई व्यक्ति इतना अध्ययनशील, और वह भी गम्भीर इतिहास और साहित्यका पढ़नेवाला हो सकता है, यह मेरे लिये अत्यंत कौतूहलकी वस्तु थी। - इसके बाद तो नाहटाजीसे बीसियों बार मिलना हुआ। बीकानेर में मुद्रित पुस्तकों और हस्तलिखित ग्रन्थोंका उनका विपुल संग्रह देखा । सच यह है कि ज्यों-ज्यों उनसे सम्पर्क बढ़ा, उनके प्रति मेरी आत्मीयतामें वृद्धि होती गयी । मैंने पाया कि वे मूलतः विद्या-व्यसनी है।
आचार्य श्री जिन कृपाचन्द्रसूरिके सान्निध्यमें वे ३ वर्ष रहे और ४५ वर्ष पूर्वसे उनका लेखन निरन्तर चल रहा है। उन्होंने लगभग ४ हजार लेख लिखे हैं जो ४०० पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित हुए हैं। कोई ३ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और करीब ६० ग्रन्थोंका सम्पादन किया है।
इतना ही नहीं उन्होंने कई ग्रन्थमालाएँ प्रकाशित की हैं। अपने स्वर्गीय बड़े भ्राता श्री अभयराजजोके नामपर अभय-ग्रन्थमाला निकाली है, जिसके अन्तर्गत ३० ग्रन्थ निकल चुके हैं।
नाहटाजीकी रुचि केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं है। अपने पिता श्री सेठ शंकरदानजी नाहटाकी स्मृतिमें उन्होंने एक कलाभवनका निर्माण किया है जिसमें प्राचीन चित्रों व कलात्मक सामग्रीका बड़ा सुन्दर व उपयोगी संग्रह है।
अनेक संस्थाओंसे वे सक्रिय रूपमें सम्बद्ध हैं। इन संस्थाओंके द्वारा साहित्य, संस्कृति, कला, इतिहास आदिकी उल्लेखनीय सेवा हई है व हो रही है।
४०२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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