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भारती के अप्रैल १९४६के अंकमें प्रकाशित हुआ था तथा हमारे 'बीकानेर जैनके लेख-संग्रह' में बीकानेरके ग्रंथ-भण्डारोंका जो विवरण दिया गया था, उसमें भी 'अभय जैन ग्रंथालय'का जो विवरण दिया गया है उसमें भी १५००० हस्तलिखित प्रतियों व ५०० गुटकोंका उल्लेख है। इसी तरह हस्तलिखित प्रतियों के साथ-साथ प्राचीन चित्र, मतियों, सिक्कों आदिका भी संग्रह करना प्रारम्भ किया और अपने स्वर्गीय महान उपकारी श्री शंकरदानजीके नामसे नाहटा-कलाभवनको स्थापना की गयी। वह संग्रह भी बढ़ता ही चला गया। इसमें विविध कलात्मक और प्राचीन वस्तुओंका दर्शनीय एवं महत्त्वपूर्ण संग्रह है ।
विविध विषयोंपर जब लेख लिखने चालू हुए तो मुद्रित ग्रंथोंकी भी बहुत आवश्यकता प्रतीत हुई क्योंकि अन्य ग्रंथालयोंसे एक साथ अधिक ग्रंथ पढ़नेको मिल नहीं सकते थे, और सब समय ग्रंथालयोंसे ग्रंथ प्राप्त करना भी संभव नहीं होता। किस समय किस ग्रंथकी जरूरत हो जाय, यह भी पहलेसे निश्चित नहीं किया जा सकता और बिना संदर्भ-ग्रंथोंके बहुत बार लेख लम्बे समय तक रुके रहते हैं। इसलिए छपे हुए आवश्यक ग्रंथोंका संग्रह करना भी जरूरी हो गया तो उनकी भी संख्या बढ़ती ही गयी। इसी तरहसे पत्रपत्रिकाओं में भी बहुत-सी सामग्री व जानकारी निकलती रहती है। उनको भी मंगाकर उनकी फाइलें ग्रंथालयमें रखना जरूरी हो गया। इस तरह मुद्रित ग्रंथों व पत्र-पत्रिकाओंका भी काफी अच्छा संग्रह हो गया है । साधारणतया लोग पत्र-पत्रिकाओंका संग्रह नहीं करते हैं, उन्हें रद्दीके भावमें बेच देते है। पर हमने अपने संग्रहकी सब सामग्रीको सुरक्षित रखनेका प्रयत्न किया है, बहुत बार रद्दी बेचनेवालोंसे भी ग्रंथों एवं पत्रिकाओंके अंक खरीद करके संग्रह बढ़ाया गया है। इसीका परिणाम है कि हमारे ग्रंथालयमें बहुत-सी ऐसी सामग्री है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। अतः विद्यार्थियोंको दूर-दूरसे यहाँपर आकर लाभ उठाना पड़ता है।
हस्तलिखित ग्रंथोंकी खोजके लिए अनेक जैन-जेनेतर ज्ञान-भंडारोंमें जाना पड़ा है और लाखों हस्तलिखित प्रतियां देखकर उनमेंसे जो-जो महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य एवं दुर्लभ प्रतियां देखने व जाननेमें आयीं, उनके नोट्स ले रखे हैं। जहाँ तक संभव हुआ अन्यत्रके महत्त्वपूर्ण दुर्लभ ग्रंथोंको अपने संग्रहमें भी रखना आवश्यक समझकर सैकड़ों रचनाओंकी नकलें करवायी हैं और बहत सी प्रतियोंके तो काफी खर्च करके फोटो एवं माइक्रोफिल्म करवा ली गयी हैं । इस तरह जो महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मूल-हस्तलिखित प्रतिके रूपमें प्राप्त नहीं किया जा सका, उसकी प्रतिलिपि करवाके 'अभयजैन ग्रंथालय' में संग्रहीत की गयी है।
भारतकी अनेक भाषाओं एवं लिपियोंकी हस्तलिखित प्रतियां संग्रह करनेका प्रयत्न किया गया है। इससे दक्षिण भारतके कन्नड़ और तमिल, पूर्वभारतके बंगला, उत्तर भारतके पंजाबी, सिन्धी भाषा और गरुमखी लिपि तथा उर्दू, फारसी, काश्मीरी और पश्चिमकी प्राकृत. संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती भाषाओंके विविध विषयोंके ग्रंथ और उन स्थानोंकी लिपियोंमें लिखे हुए हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहीत किये जा सके हैं। जिस भाषा और लिपिकी प्राचीन प्रति नहीं मिल सकी, वहाँकी आधुनिक प्रति भी प्राप्त की गयी है । जैसे-ताड़पत्रकी प्रतियां जैन ज्ञान भण्डारोंमें १५ वीं शताब्दी तकको ही प्राप्त होती हैं पर कन्नड़ और तमिलमें इसके बादकी काफी मिलती हैं। उड़ीसामें तो कुछ वर्षों पहिले तक ताड़पत्रपर लिखनेकी प्रणाली थी। अतः उड़ियालिपिकी ताडपत्रपर लिखी हई ( जो अक्षरोंको खोद करके लिखा हुआ है) एक-दो प्रति प्राप्त की गयी है। बंगाल, आसाममें पहले वृक्षोंके छालपर ग्रंथ लिखे जाते थे । अतः बंगालसे ऐसी प्रतियां खरीद ली गयीं। इसी तरह चित्रशैलियोंकी दृष्टिसे भारतमें जो बहत-सी चित्रशैलियां रही हैं उनमें भी जितनी अधिक शैलियोंके चित्र मिल सके, संग्रहीत किये गये हैं। महाराष्ट्र की भी कई सचित्र व अचित्र
३९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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