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हुआ। दूसरा ग्रंथ 'पूजा संग्रह' निकाला। इसके बादसे ही हमारे लिखे हुए ग्रन्थ इस ग्रन्थमालामें छपने लगे और अब तक अभयजैन ग्रन्थमाला द्वारा ३० ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं।
हस्तलिखित प्रतियोंके साथ-साथ उपयोगी मद्रित-ग्रन्थोंका संग्रह भी किया जाने लगा। जब यह संग्रह कुछ अच्छे रूपमें हो गया तो ग्रंथालयकी स्थापना की जानी जरूरी हो गयी। स्वर्गीय अभयराजजी एक ज्ञानी पुरुष थे और ग्रंथोंके संग्रह और अध्ययनमें उनकी गहरी अभिरुचि थी। इसलिए ग्रंथालय उन्हींके नामसे चालू करना ज्यादा उपयुक्त समझा गया। इस तरह 'अभयजन ग्रंथालय की स्थापना हो गयी। दिनों-दिन ग्रन्थोंकी संख्या बढ़ती चली गयी। जो ग्रंथ केवल तीन अलमारियोंमें सीमित थे, आज १००से भी अधिक अलमारियां ग्रन्थोंसे भर गयी है। अब तो हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थोंकी संख्या १ लाख तक पहुंच गयी है। इस तरह एक छोटा-सा पौधा, बट-वृक्षके रूपमें विस्तरित होता गया है। करीब ४५००० (पैंतालीस हजार) हस्तलिखित प्रतियोंका अत्यन्त मूल्यवान, दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण संग्रह इस ग्रन्थालयमें हो चुका है और करीब उतने ही मुद्रित ग्रन्थ भी संग्रहीत हो चुके हैं। हजारों पत्र-पत्रिकाएँ, विद्वानोंके लेखोंके रीप्रिंट्स और अन्य विविध प्रकारकी सामग्री इस ग्रन्थालयमें संग्रहीत हो चुकी है। कई वर्ष पूर्व इसके लिए जो तीनतल्ला बिल्डिंग बनवाया गया था उसमें अब ग्रंथ रखनेकी तिलभर भी जगह नहीं रही। ग्रंथोंके संग्रह और अध्ययनको रुचि बढ़ती ही जा रही है । अतः जगह न होते हुए भी नित्य नये मुद्रित व हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहीत होते ही जा रहे हैं । हस्तलिखित प्रतियों के संग्रहमें तो इतना अधिक उत्साह-व आंतरिक प्रेरणा है कि उचित मूल्यमें कोई भी हस्तलिखित प्रति मिली तो खरीद ली जाती है, उसे छोड़नेकी इच्छा ही नहीं होती। जहाँ कहींसे भी ग्रंथ मिल सकते हैं, वहाँपर स्वयं जाकर या अपने आदमीको भेजकर उनको खरीद लेनेका ही प्रयत्न रहता है।
गत ४२ वर्षोंसे हस्तलिखित प्रतियोंके संग्रहका प्रयत्न निरंतर चाल है। पर गत २५ वर्षों में इस दिशामें जितना अधिक कार्य हआ है उतना पहले नहीं हो सका था क्योंकि स्वतन्त्रता-प्राप्तिके बाद हस्तलिखित प्रतियाँ बिकनेके लिए जितनी बाहर आयी हैं, इससे पहली कभी नहीं आयीं। मुद्रण-युगमें हस्तलिखित प्रतियोंका पठन-पाठन बंद-सा हो गया। अतः जिनके पास भी हस्तलिखित प्रतियोंका संग्रह था वे अब उनकी उपयोगिता नहीं रहनेसे बेचनेको तैयार हो गये। राजा-महाराजाओं, ठाकुरों, यतियों, विद्वानों और कवियोंके वंशजोंने अपने संग्रह बेचने प्रारम्भ कर दिये। जब ऐसे संग्रह उचित मूल्यमें मिलनेकी खबर पहुँची तो काकाजी अगरचंदजीने बाहर जाकरके भी और लोगोंको पत्र लिखकर भी ऐसे संग्रह खरीद करने प्रारम्भ कर दिये। स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजीका जब ग्वालियरमें चौमासा था, तो उन्होंने सूचना दी कि जैनेतर वेद आदि ग्रंथोंका एक अच्छा संग्रह बिक रहा है तो अगरचंदजी वहाँ पहुँचे और उसे खरीद लिया। इसी तरह जयपुरके कबाड़ियोंसे अच्छा संग्रह बिकने की सूचना मिली तो वहाँपर जाकर ले लिया गया।
भारतका विभाजन होनेपर पंजाबका ग्रंथ-संग्रह भी खूब बिकने लगा। हमारे मित्र स्वर्गीय डॉ० बनारसीदास जैनने एक कबाड़ीको कह दिया कि नाहटाजी जो हस्तलिखित ग्रंथोंका संग्रह कर रहे हैं, उन्हें तुम प्रतियोंके बंडल भेजते रहो वे उनका उचित दाम लगाकर रुपये भेजते रहेंगे। फलतः उस पंजाबी कबाड़ीने कई वर्षों तक बड़े-बड़े पुलिन्दे पार्सल करके ग्रंथ भेजे । इस तरह इधर-उधरसे प्रयत्नपूर्वक संग्रह करतेकरते ही इतना बड़ा संग्रह हो सका है।
अबसे कोई तीस वर्ष पहले हमने अपने यहाँको हस्तलिखित प्रतियोंकी सूची बनायी थी, उस समय तो करीब ५००० प्रतियाँ ही थी। इसके बाद करीब २७ वर्ष पहिले जो सूची बनी थी उस समय करीब १५००० प्रतियाँ थीं। हमारे इस ग्रंथालय एवं कला-भवन-संग्रहालयके संबंधों मेरा एक लेख 'राजस्थान
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३९१
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