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उन्हीं दिनों श्री कृपाचन्द्रसूरिजी के एक प्रतिशिष्य तिलकचन्दजी बड़े उपासरेमें रहने लगे थे। उन्होंने देखा कि अनेक हस्तलिखित प्रतियोंका ढेर उपासरेके कूड़े-करकटमें पड़ा हुआ है। उन्होंने उसमेंसे कुछ इकट्ठा करना प्रारम्भ किया और कुछ यति मुकनचन्दजीने बटोरना शुरू किया तो हमें भी प्रेरणा हुई कि इन हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह करना चाहिए जिससे हमारे पास साहित्य और शोधकी अच्छी सामग्री इकट्ठी हो जाय । हमें कुछ प्रतियां तो वैसे ही मिल गयीं और कुछ खरीद भी की। इस तरह हस्तलिखित ग्रंथोंके खोजके साथ संग्रहका कार्य भी प्रारम्भ हो गया, पर उस समय जो संग्रह किया गया था वह अधिकांश अस्तव्यस्त था और हस्तलिखित पत्रोंके ढेर में से लिया गया था, अतः उनमें बहुत-सी धूलि धूसरित थीं व कांटे भी थे; पन्ने तो प्रायः सभी अस्तव्यस्त बिखरे हुए थे, अतः हमने एक छोटे कमरेमें उन पत्रोंकी छंटाई करनी प्रारम्भ की । कोई पत्र कहीं मिला तो कोई पत्र कहीं, और कोई कहीं दूसरी प्रतियोंके साथ लगा हुआ या दबा हुआ मिला। जब हम छंटाई करने उस कमरे में जाते तो कपड़े धोये हुए नये पहने हुए होते, पर वहाँसे काम करके वापस निकलते तो कपड़ोंपर धूल भर जाती और एकदम मैले हो जाते, कहीं कांटे चुभ जाते, हाथों और चेहरेपर भी धूल जम जाती पर इस कठिन परिश्रममें भी हमें नयी-नयी सामग्री मिलती रहती और कार्यमें उत्साह बढ़ता रहता अपूर्ण प्रतियां जब पूरी हो जातीं और कोई नया ग्रंथ मिल जाता
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तो हमें इतना आनन्द होता कि मानों शरीरमें सवा सेर खून बढ़ गया हो ।
हजारों हस्तलिखित प्रतियोंके अवलोकन और पढ़नेसे हमारे ज्ञानमें दिनों-दिन अभिवृद्धि होती गयी, प्राचीन लिपियोंका अभ्यास बढ़ने लगा, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती, इन पांचों भाषाओंके ग्रंथ हमें पढ़ने को मिलते। अतः इन भाषाओंका ज्ञान भी बढ़ा और साथ ही अनेक विषयोंके ग्रंथ देखनेसे विविध विषयोंका ज्ञान विस्तृत होता चला गया। इधर छपे हुए ग्रंथोंका अध्ययन भी जारी रहा। फलतः पाठशाला के अध्ययनमें जो कभी रह गयी थी, उसमें सतगुणी वृद्धि होती गयी। लाखों ग्रंथोंको देखने एवं पढ़ने का अवसर मिलता गया और हस्तलिखित प्रतियोंका संग्रह भी उत्तरोतर बढ़ता चला गया। इधर ज्यों-ज्यों नयी जानकारी मिलती गयी त्यों-त्यों उसके शीघ्र प्रकाशन करनेका प्रयत्न चलने लगा। उस सामग्रीके आधारसे ग्रंथ लिखे व सम्पादित किये जाने लगे और हजारों लेख अनेक पत्र, पत्रिकाओं में छपते रहे ।
चाचाजी अगरचन्दजी अपने पिताजीके सबसे छोटे पुत्र हैं । उनके बड़े भाइयोंमें श्री अभयराजजी नाहटा हमारे परिवार में सबसे अधिक पढ़े-लिखे थे । दुर्भाग्यवश उनको ऐसी प्राणघातक बीमारी लगी कि २२ वर्ष की अवस्थामें ही उनका जयपुरमें स्वर्गवास हो गया। वे जयपुर के रामबाग में सुप्रसिद्ध वैद्य लच्छीरामजीसे इलाज करा रहे थे। तब कई महीने अगरचन्दजी, माताजी व भजेईके साथ उनके पास रहे थे । उस समय उनकी आयु केवल १० वर्षकी ही थी । पर देखते रहे कि रुग्ण अवस्था होनेपर भी उनके गुरुभ्राता अभयराजजी नये-नये ग्रंथोंको पढ़ते ही रहते थे । सोते समय भी उनके तकिये के नीचे पुस्तकें रखी रहतीं, शायद वे पढ़ते-पढ़ते ही सोते थे । उनको स्वाध्याय रुचिका अगरचन्दपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उनकी मृत्युके बाद तो उनके पिताजी व माताजी को इतना गहरा सदमा पहुँचा कि जयपुरमें अभयराजजीके पास जो भी पुस्तकें थीं उनको वहीं लोगोंको दे दी गयीं। उनकी एक भी पुस्तक बीकानेर नहीं लायी गयी। घरवालोंको ऐसा लगा कि अधिक योग्य और पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस तरह एकाएक चला गया तो अब अन्य लड़कोंका अधिक पढ़ना ठीक नहीं । अतः हमारी पढ़ाई भी अधिक आगे नहीं बढ़ सकी, इसमें यह भी एक कारण बन गया ।
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मेरे दादाजीने, अभयराजजीकी स्मृतिमें कोई अच्छा या उपयोगी काम किया जाय इस दृष्टि से अपने गुरु जिनकृपा चन्द्रसूरिजी के परामर्शसे एक उपयोगी ग्रन्थ प्रकाशनका निश्चय किया। फलतः 'अभवरत्न सार' नामक एक बड़ा ग्रंथ कलकत्ते से छुपाया गया। इसीसे हमारे 'अभयजैन ग्रंथमाला' का प्रकाशन कार्य चालू ३९० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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