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वे पुरातत्ववेत्तासे तत्त्ववेत्ता बन गये
भँवर लाल कोठारी
जबसे मैं
कुछ जानने-समझने योग्य बना, लगभग तबसे ही श्रीयुक्त अगरचन्दजी सा० नाहटाको देखने, सुनने व समझने के अवसर मुझे उपलब्ध हुए ।
मैंने उन्हें चारों ओर फैले-बिखरे पुस्तकों, ग्रंथों, पांडुलिपियोंके अंबारके बीच ज्ञानके अथाह सागर में गहरा गोता लगाते हुए एक गोताखोरके रूपमें देखा और पाया कि ज्ञानके रज्जुको पकड़कर जब वे अन्तरतलमें उतर जाते हैं तो अनेकानेक अनमोल रत्न उसी प्रकार इस तलपर ला उडेलते हैं जिस प्रकार गोताखोर अथवा खनिक समुद्र के अन्तस्तल अथवा वसुन्धराके गर्भ मेंसे रत्नोंको बटोर लाता है । मिलते थे तो जिज्ञासाएं उभरती थीं।
अब जब भी मिलते हैं तो समाधान
प्रारम्भमें जब वे मिल जाता है ।
यह चमत्कार है नियमित सामायिक समभावपूर्वक स्वयंका अध्ययन- ध्यान अर्थात् स्वाध्याय करनेका । वे आज पुरातत्त्ववेत्तासे तत्त्ववेत्ता बन गये । अध्ययनसे ध्यानको उपलब्ध हो गये ।
अभिनन्दनके इन क्षणोंमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्वका अभिनन्दन और स्थितित्वका वंदन ।
भारत - विख्यात विभूति
साध्वीश्री चन्द्रप्रभाश्रीजी
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श्रमण संस्कृति की तेजोमय आभासे आभासित दिव्य विभूति श्री अगरचन्दजी नाहटा ऊँची बीकानेरी पगड़ी, स्वच्छ धवल वस्त्र, ऊँची दो-लंगी धोती, पैरोंमें गोरक्षक जूते तथा आँखोंपर उपनेत्र धारण किये हुए प्रथम दर्शनमें एक सम्पन्न किन्तु सात्त्विक धनाधीश ही प्रतीत होते हैं । बात-चीत करनेपर दर्शक व आगन्तुकको यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है कि इस सामान्य वेशसे परिवेष्टित यह व्यक्ति कोई सामान्य जन नहीं है अपितु गंभीर ज्ञानका अथाह सागर अपने अन्तसमें समाहित किये हुए श्रमण संस्कृति के तत्त्वज्ञानका अभिनव व्याख्याता व भाष्यकार है ।
समाधानकारक
इस महामनाकी प्रखर तेजस्वी लेखनी से निस्सृत शाश्वत चिन्तन- प्रवाहकी सात्त्विक सरिता भारतकी प्रायः सभी उच्च स्तरीय पत्रिकाओं में अपने अबाध प्रवाह के साथ सतत प्रवहमान है । आप अपने देशके उन तपोपूत ज्ञानवृद्ध लेखकों एवं विचारकों में हैं, जो गत ५ दशकोंसे निरन्तर अपने साहित्य एवं गवेषणापूर्ण सम्पादनोंसे भारतीय साहित्यको समृद्ध करते आ रहे हैं । जन-जीवनकी सामान्यसे सामान्य समस्या से लेकर धर्म और दर्शन जैसे गंभीरतम विषयोंकी समस्याओं तकका समानरूपसे समाधानपरक चिन्तन अत्यन्त सरल किन्तु प्रसादमयी भाषा में प्रस्तुत करना आपकी लेखनीका विलक्षण कौशल है । हम अनुमान नहीं लगा सकते कि इस मेधावी प्रतिभाकी कितनी गहराई है ? निश्चय ही इस प्रतिभा-पुत्र को अपने ज्ञान भण्डारके सम्वर्द्धन हेतु कल्पनातीत स्वाध्याय-साधना करनी पड़ती है । यही कारण है कि आपका अध्ययन केवल स्वाध्याय मात्र न होकर एक स्वतंत्र अध्ययन तथा मनन-चिन्तन केवल मन-मन्थक मात्र न होकर सभी प्रकारके पूर्वाग्रहोंसे मुक्त स्थिति में अपने नव्य नवीन मौलिक स्वरूपमें हमारे समक्ष आते हैं ।
३८६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन - ग्रंथ
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