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________________ ओज सब खो दिया।" समूचे देशमें नाहटाजी साहित्य, संस्कृति, इतिहास व पुरातत्त्वके संग्राहक व शोधक रूपमें ख्याति प्राप्त कर चुके हैं । जैन वाङ्गमय व पुरातत्त्वके क्षेत्रमें उनका विशिष्ट योगदान है। दर्जनों पुस्तकें व सहस्रों लेख वह प्रकाशित कर चुके हैं। राजस्थानके प्राचीन साहित्य' इतिहास व पुरातत्वके तो वह जीते जागते शब्दकोश हैं। ज्ञानके अर्जन, संरक्षण व प्रकाशनमें उन जैसे दत्त-चित्त एवंकर्मठ विद्वान् ही युवापीढी के लिए सदा प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। पुस्तकों व पत्रिकाओंके अथाह समुद्र में गोते लगानेवाले नाहटाजी विद्यादानमें कितने उदार हैं यह सर्वविदित है। मुझे उनके व्यक्तित्वका यह पक्ष सदा ही आकर्षित करता रहा है। किसी भी विषयपर, किसी भी समय, किसीको भी यदि शोध खोज संबधी सूचना अपेक्षित है या शङ्का-समाधान करना है तो जितनी त्वरा व तत्परतासे नाहटाजी उसके निष्पादनमें रुचि लेते हैं वह विरले विद्वानोंमें ही देखा जाता है । १८वर्षों के सम्पर्कमें मुझे ऐसे अवसर स्मरण नहीं आते हैं-जब उससे शोध संबंधी किसी भी प्रकारकी सहायताकी आवश्यकता हुई हो और उन्होंने अन्यमनस्कता प्रदर्शित को हो। ज्ञानके विस्तारमें उनकी इस उदारताने उन्हें नयी पीढ़ीके शोधक व खोजी विद्वानों के बीच आशातीत रूपसे लोकप्रिय बना रखा है। अनेक बार देशके विभिन्न संभागोंमें मेरे सहकर्मियों एवं साथियोंने जब कभी उनसे भेंट हई, नाहटाजीकी इस विशाल हृदयताकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपना श्रद्धापूर्वक आभार व्यक्त किया है। वैदिक ऋषियोंकी परंपरामें उन्होंने सदा अपना जीवनदर्शन रखा-"शतहस्तं समाहारं सहस्र हस्तं समाविरम् ।" कर्मठता उनकी साहित्य-साधनाका रहस्य है। किसी भी काममें जुट जानेपर उसे पूरा कर लेनेपर ही दम लेना उनकी आदत है। बाधाएँ, व्यवधान व कठिनाइयां-उनके मार्ग में अवरोधक हों यह उन्हें स्वीकार नहीं। उनपर विजय पानेकी कलामें वह निष्णात हैं। उनकी मान्यता है कि शोधार्थीकी सफलताकी आधारशिला उसका अध्यवसाय परिश्रम, लगन व निष्ठा है । जिसमें ये गुण न हों उन्हें इस 'ज्ञानके मार्गपर चलनेका अनर्थक दुस्साहस न करना चाहिए। नाहटाजीका विपुल-साहित्य इस तथ्यका प्रमाण है कि जो भी उन्होंने लिखा उसमें अप्रकाशित, अज्ञात एवं सर्वथा नवीन सामग्रीका पूर्णतः समावेश किया। उनके साहित्यका बीज-मंत्र है “ न अमूलं लिख्यते किञ्चित् । __ "बीकानेर जैन लेख संग्रह में बीकानेर व निकटवर्ती क्षेत्रोंकी हजारोंको संख्यामें अप्रकाशित जैनमूर्ति व स्मारक अभिलेखोंका संकलन व प्रकाशन-उनके अध्यवसायका जीवन्त प्रमाण है । विभिन्न प्राचीन जैन आचार्योकी जीवनियोंके प्रणयनमें भी उन्होंने मूलशोध सामग्री व ऐतिहासिक दृष्टि बिन्दुको ही प्रमखता दी। सत्यका उद्घाटन उनका लक्ष्य रहा। देशके विविधानेक शोध संस्थानोंसे नाहटाजीका निकटका सम्बन्ध है। शार्दुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीच्यूट, बीकानेरसे लम्बी अवधितक उनका घनिष्ठ रहा। संस्थानके माध्यमसे साहित्य व इतिहास सम्बन्धी अनेक अज्ञात रचनाओंको विभिन्न विद्वानोंसे संपादित करा-राजस्थानके इतिहास व संस्कृतिके विभिन्न पक्षोंको प्रकाशित करानेमें उन्होंने विशेष रुचि ली। संस्थानकी मुख पत्रिका ‘राजस्थान भारती के डॉ० टैसीटोरी, पृथ्वीराज राठोड़ एवं महाराजा कुंभाविशेषांक-नाहटाजी तथा उनके सहयोगियोंके कुशल संयोजन, परिष्कृत संपादन एवं अध्यवसायके परिचायक हैं। इन विशेषांकोंके माध्यमसे राजस्थानके सन्दर्भमें जो नवीन ठोस सामग्री प्रकाशमें आई उसका देश विदेशमें जिस प्रकार स्वागत हआवह स्तुत्य है ऐसे बह-श्रुत विद्वान अपनी लेखनीसे राजस्थानकी सांस्कृतिक व प्राचीन संपदाके संरक्षण व प्रकाशनमें अधिकाधिक योगदान करें, यही कामना है। ३८४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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