________________
ग्राहक बनाने में सहयोग दिया।
हमारे यहाँ उस समय सौ दो सौ पुस्तकें ही नहीं थी, क्योंकि काकाजी अभयराजजीका देहान्त जयपुर में हुआ और उनके पास रही हुई सैकड़ों पुस्तकें दादाजी वहीं छोड़ आये थे। काकाजी अभयराजजीका देहान्त १९७७में हुआ। इतः पूर्व जब वे बीकानेरमें थे, हम लोगोंको आठमचौदसका हरी और रात्रिभोजनका उन्होंने ही नियम दिलाया था, काकाजीने उस जमाने में कुछ पाठ्य-पुस्तकें लिखी थीं जिन्हें संशोधनार्थ किसीको दी थीं पर वापस नहीं आई। हमने थोड़ी-बहुत पस्तके मँगानी प्रारंभ की। पादरासे कुछ ग्रन्थ आगमसार, आत्म""आदि मँगवाये जिससे अध्यात्म रुचि जगी। मो० द० देसाईका कविवर समयसुन्दर निबन्ध आत्ममहोदधिमें पढ़ा तो इच्छा हई कि ग्रन्थमालाको आगे चलाना है तो समयसुन्दरजीका साहित्य शोधकर हिन्दीमें निकालना है । तो बीकानेर ज्ञानभंडारोंकी शोध प्रारम्भ की । श्री महावीर जैनमंडलसे सं० १८०४ का लिखा एक गुटका मिला जिसमें उनकी शताधिक कृतियाँ थीं, फिर सभी कवियोंका साहित्य देखना प्रारंभ किया, स्तवनादि भाषा कृतियाँ संग्रह की। ज्ञानभंडारोंको देखा तो उनकी सूचियाँ भी बनाई, काकाजीने बड़े ज्ञानभंडार, कृपाचंद्रसूरि भंडार, जयचन्दजीके भंडार आदिकी सूचियाँ १ मुसाफिरीमें बनाई, दुसरे वर्ष मैंने बीकानेरमें बोरोंकी सेरीके उपाश्रयकी सूची बनाई और कलकत्ते आकर सूर्यमलजी मुनिके उपाश्रय (रंगसूरि पोशाल) की ग्रन्थसूची बनाई। नाहरजीके यहाँका विशाल संग्रह समयसुन्दरजीकी पापछतीसी आदि देखनेके लिये गये और उनसे घनिष्ठता बढ़ी तो प्रत्येक रविवारको वहाँ जाकर सारा दिन उनके साथ बीतता। काकाजीने जैनधर्म प्रचारक सभासे प्रकाशित जैनधर्म प्रकाशमें प्रकाशित विधवाकुलकके अनुवादका हिन्दीमें विवेचन करके विधवा-कर्त्तव्य लिखा, उसी वर्ष मैंने समयसन्दरजीकृत रासके आधारसे सती मृगावती पस्तिका लिखी। दोनों पुस्तकें आगरा श्वे. जैन प्रससे छपाकर प्रकाशित की एवं तत्पश्चात् स्तोत्र पूजादिसंग्रह प्रकाशित किया । शांबप्रद्य म्न चौ० ( समयसुन्दर ) के आधारसे सार लिखा जो अधूरा पड़ा था । ३५ वर्ष बाद पूरा करके पंजाबकी सप्तसिंधु पत्रिकामें छपाया गया। उसी समय मुनिपतिचरित्रका काम शुरू किया जो अधूरा ही रहा । काकाजीने मनुष्य भव दुर्लभता ( १० दृष्टान्त ) और सम्यक्त्व स्वरूप नामक पुस्तकें लिखीं जो अद्यावधि अप्रकाशित हैं। सं० १९८६ में मैंने कलकत्ता 'चन्द्रदूत' क्षापणापत्र : कृपाचन्द्रसूरिजीको बीकानेर भेजा। बीकानेरके जैन अभिलेखोंका संग्रह प्रारंभ किया और हजारों लेख एकत्र किये । सतियोंके लेख भी मेघराजजी काकाजीके सहयोगसे एकत्र किये। गौ० ही० ओझाके कहनेसे ना० प्र. सभाका मेम्बर बना । जटमलनाहरकृत पद्मिनी चौ० प्रतिके प्रसंगसे ठा० रामसिंहजीने बुलाया। उन्हें हस्त० ग्रंथादि बतलाये । ओझाजीसे परिचय बढ़ा, वे अपने घर भी आये। ज्ञानभंडार दिखाया, लायब्रेरी देखी। मंदिरोंमें भी गये, अभिलेख दिखाये, जांगलकूप वाला लेख भी दिखाया । शिलालेख आदिके सम्बन्धमें बहुत-सी बातें हुई।
नाहरजीके संग्रहको देखकर अपने भी संग्रह करनेकी इच्छा बलवती होती गई। कई वस्तुओंका संग्रह किया। हस्तलिखित ग्रंथोंका संग्रह रद्दी कुटलेके खरीदसे प्रारंभ हआ। सर्वप्रथम ११) में, फिर २) में, फिर ३०) में जो कूटला लाया सुबहसे शामतक अथक परिश्रम करके हजारों ग्रंथ निकाले । इतनी इतिहास सामग्री, विकीर्णपत्र, आदेशपत्र, पत्र-व्यवहार आदि प्रचुर परिमाणमें संग्रह हुआ। चित्र, पूठे, कूटेकी सामग्री आदि भी पर्याप्त संग्रह होने लगी। नाथालाल छगनलाल शाह आये तो उन्हें भी १३ पूठे और सचित्र शालिभद्र चौ० कुल ९५) में दिलाई (गोपाल यथेक्षासे) मैंने भी कुछ वस्तुएं खरीदीं। तिलोकमुनिसे लगभग ३० बंडल हस्त-ग्रंथ ३०)में तथा इतनी ही करीब सामग्री भेट रूपमें प्राप्त की। जयपुरमें सस्ते पैसोंमें बीसों चित्र खरीद लिये। सं० १९९१ में कुछ ग्रंथ पालीतानासे गलाबचंद शामजी भाई ३७८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org