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का विशेष खर्च था । स्कूलका काम हम बराबर घरपर कर लेते और छतपर सुबह-सुबह घूमते हुए धर्मकी गाथा याद कर लेते । पिताजी हमेशा अगरचंदजी काकाजीको कविसम्राट् कहा करते वैसे उन्हें 'बाबू' नाम से भी सम्बोधित किया जाता था ।
सहपाठी
हमारे सहपाठी थे जीवनमलजी कोचर, जसकरनजी कोचर, रतनलालजी सुराना, राधाकृष्ण सुनार, हरिसिंह राजपूत आदि । मुकुनलालजी कोचर, जसराज सोनार वगैरह भी हमारे ऊपरकी कक्षा में थे । मेघराज गोपाछा भी शायद हमारे साथ ही थे । स्कूल में खेलकूद आदिमें हमलोग कम भाग लेते, गवाड़ के लड़कों के साथ तो कभी नहीं खेलते । सं० १९८० में मेघराजजीका विवाह हो गया था। उसके बाद हमलोगोंने १९८१ में स्कूल छोड़ दिया। यों हम लोग कभी गवाड़ में किसी भी खेलमें भाग नहीं लेते क्योंकि शामको पाटेपर बड़ेबूढ़ोंके पास बैठना व दादाजी ( दोनों - दानमलजी, शंकरदानजी ) के पैर दबाना नित्य क्रम था। आसकरणजी कोठारी आदि पाटेपर आ जाते और हमें लीलावती गणित आदिके सवाल पूछते, ज्ञान, अनुभवकी बातें सुननेको मिलतीं । हमें बड़ोंका इतना भय और आतंक था कि कभी पतंग उड़ाना तो दूर, लूटनेके लिए भी छतपर नहीं जाते, कभी जाते और दादाजी नीचेसे पुकारते तो हम लोग तीनों अलग-अलग रास्तेसे, कोई बाहरसेकोई किसी सीढ़ीसे, कोई किसी घरमेंसे आता ताकि वे यह न समझ सकें कि ये लोग तीनों एक साथ छतपरसे आ रहे हैं । सं० १९८२ के शेषमें कलकत्ते में हिन्दू-मुसलमानोंका दंगा हुआ तो कोई काम-काज था नहीं, डेढ़ महीने व्यापी दंगे में रात-दिन गप्पें मारना और ताश खेलना ही रह गया था। थोड़ी-थोड़ी ताश खेलनी आने लगी और बीकानेर में बालचंदजी नाहटा जो हम सबमें छोटे और पढ़ने में बिलकुल मुँह चुरानेवाले थे उनके संगतमें लुक-छिपके ताश खेलने लगे । लेकिन बड़ोंके सामने कभी हमने ताश नहीं खेली और पुकारनेपर उसी चालसे अलग-अलग रास्तोंसे उतरकर नीचे आ जाते ।
सं० १९८३के आषाढ़ वदी १२ को हम दोनोंका एक ही दिन विवाह हुआ और हम लोग फिर कलकत्ता आ गये । काम-काज गद्दीमें सीखते-करते । प्रतिदिन मंदिर जानेका नियम तो था ही सामायिक भी प्रतिदिन करते सरबसुखजी नाहटाके साथ शत्रुंजयरास गौतमरास आदि बोलनेसे कण्ठस्थ हो गये । काकाजी सिलहट रहने लगे यों मैं भी सं० १९८२ में पर्यूषणके बाद सिलहट गया और खाज-खुजली हो जाने से दीवाली के थोड़े दिन बाद कार्तिक महोत्सवजीपर कलकत्ता आ गया, उसके बाद अधिकांश कलकत्ता ही रहा ।
सं० १९८४ में श्री जिनकृपाचंद्रसूरिजी माघ सुदि ५ को बीकानेर पधारे, उस समय में बीमार था ( गोगोलाव कोचरोंकी बारात में गया, रातमें बुखार होकर शरीर जुड़ गया ) फिर ठीक होनेपर व्याख्यानमें जाना, प्रतिक्रमण करना, दिनमें भी सुखसागरजी के पास बैठना, आगमसार आदिका अभ्यास करना चालू रहा । सा० वल्लभश्रीजीके पास कुछ दिन संस्कृत भी पढ़ी फिर अस्वस्थ होनेसे अभ्यास छूट गया । काकाजीकी 'कवि सम्राट्' बचपनकी उपाधि सार्थक हो गयी और उन्होंने बहुत-सी गलियाँ ( श्रोजिनकृपाचंदसूरिजी ) कई छत्ती सियाँ, स्तवनादि लिखे । मैं भी कुछ गहूं लिया लिखता था । गहू ली संग्रह में वे गहू लियाँ छपी हैं । गली संग्रह बीकानेर सेठिया प्रेसमें छपा और उसके माध्यमसे हमने प्रूफ करेक्शन करना सीखा । कलकत्ते में सर्वप्रथम हमारी ओरसे अभयरत्नसार छपा वह तो पिताजी और काकाजीने पं० काशीनाथ जैनके मार्फत छापा । दूसरा ग्रन्थ पूजासंग्रहमें हमारे दोनोंके कुछ स्तवन छपे हैं उसका संशोधन हमने तिलकविजयजी पंजाबी से कराया, वे उस समय सूर्यमलजी यतिके पास ठहरे थे और श्राद्धविधि प्रकरण छपा रहे थे। हमने उन्हें अग्रिम
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