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________________ पैसे देने पड़ेंगे। छोटेसे छोटे कागजको भी आप फेंकते नहीं। उनका भी उपयोग करते हैं। मेरे पास जो उनके लेख आते हैं उन पर कई बार तो १-१॥ इंच तक कागज लगा हुआ आता है जिस पर आपकी बात लिखी हुई होती है। श्री नाहटाजीने अब तक हजारों निबंध एवं बीसियों पुस्तकें लिखी हैं जो ऐतिहासिक महत्त्व की हैं । भारतकी विख्यात जैनाजैन पत्रिकाओं में आपके निबंध प्रकाशित होते हैं जिनमें हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश आदि भाषाओंके लेखकों आदिसे संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । साहित्यिक कृतियोंके लेखकों आदिसे संबंधित कई गुत्थियाँ एवं विवाद आपके निबंधोंके कारण ही सुलझना संभव हुआ है । 'पृथ्वीराज रासो' संबंधी विवादका अन्त इसका एक छोटा सा उदाहरण है। आप बड़े कुशाग्र बुद्धि हैं तथा दूसरे लेखकोंकी छोटीसे छोटी बातकी ओर भी आपका ध्यान तत्काल आकृष्ट होता है। प्रमाणमें एक उदाहरण प्रस्तुत है 'बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ' में आपका एक निबंध ५वीं शतीके प्राकृत ग्रंथ वसुदेव हिन्दीकी रामकथा' शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था जिसके संबंधमें श्रद्धेय गुरुवर्य पं० चैनसुखदासजीने अपने सम्पादकीयमें लिखा था, नथके नामके साथ जो हिन्डी शब्द लगा है हमारे विचारमें वह हिन्दीका ही पूर्वरूप है। वसुदेव हिन्डी अर्थात् वसुदेव भाषा अर्थात् हिन्दी भाषामें वसुदेव चरित्र । अगर हमारा यह विचार सत्य है तो हिन्दी शब्द और हिन्दी भाषाका प्रार्दुभाव ५वीं शतीसे भी अधिक पूर्वमें चला जाता है । भाषा संबंधी शोधकर्ताओंके लिए 'वसुदेव हिन्डी' वास्तवमें एक महत्त्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हो सकता है।" आपने ४-३-६८ को पण्डित साहबको लिखा-"आपने वसुदेव हिन्डीमें हिन्डी शब्दको हिन्दीका पूर्वरूप माना है वह ठीक नहीं है। हिन्डीका मतलब है भ्रमण करना, घूमना । श्री कृष्णके पिता वसुदेवने जगहजगह घूमकर बहुतसे विवाह किए उसहीका मुख्य वर्णन इस ग्रंथ में है । प्रासंगिक रूपसे इसमें बहुत सी कथाएँ आई है। ......" " सम्पादकीयमें जो भी लिखा गया वह विचार मैंने ही गुरुदेवको दे दिया था और शीघ्रतावश वह सम्पादकीय में चला भी गया। चूंकि यह विचार मैंने ही सर्व प्रथम उनको दिया था अतः उन्होंने नाहटाजी का वह पत्र मुझे दे दिया कि मैं इस संबंध लिखू। आज भी यह पत्र मेरे पास इसलिए सुरक्षित है कि इस संबंध में कुछ लिखना है। समयाभाव किंवा आलस्यवश ही कुछ लिख नहीं पाया और भविष्य में लिख सकूगा या नहीं कहा नहीं जा सकता अत: संक्षेपमें इस संबंधमें कुछ संकेत इस आशाके साथ करना चाहता हूँ कि समर्थ विद्वान् इस विषय पर पूर्वाग्रहोंसे हटकर नए दृष्टिकोणसे विचार करें। डा. देवेंद्र कुमार जैनने अपने "अपभ्रंश भाषा और साहित्य" नामक पुस्तकके प्रथम संस्करणमें पृष्ठ १००१ पर लिखा है "स्वयं पाणिनिने कुछ धातु पाठ दिये हैं जिनका संबंध डा० जोशी प्राकृत धातुओंसे मानते हैं जैसे--हिन्ड गत्यर्थे-हिन्डइ ( अपभ्रंश ). हांट ( बंगला ). हिटणां (कुमाउनी)। इन धातओंका व्यवहार संस्कृतमें नहीं होता।" श्री श्यामसुन्दर लाल दीक्षित एम० ए०, सा. रत्न, प्रभाकरने एक 'माडर्न हिन्दी कोष'का सम्पादन किया है जिसमें भी हिण्डनका अर्थ घूमना किया है। पालना या झूला भी हिण्डोला इसलिए कहलाता है कि वह इधर-उधर घूमता है । जयपुरमें हिण्डोलेको हींदा कहते हैं और उसमें झलनेको हींदना । हिण्डोल एक प्रकारका राग होता है जिसके प्रभावसे झूलना अपने आप झूलने लगता है ऐसा संगीत शास्त्रों में कहा है। श्री दीक्षितके कोषमें हिण्डोलका संस्कृत रूप हिन्दोल बताया है। सं० दोलाका अपभ्रंश रूप डोला, सं० दहति शब्दका अपभ्रंश रूप डहइ है। इस सबका निष्कर्ष हमारे विचारमें यह निकला कि ये ३७४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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