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सब शब्द एक ही क्रिया से संबंधित हैं और इनमें 'ड' का 'द' में परिवर्तन भी हुआ है । इस क्रियाका अर्थ
यात्रा करना और इधर-उधर घूमना दोनों ही होता है । इस तरह हिन्डीका एक अर्थ यात्रा करनेवाला, इधर उधर घूमनेवाला भी होगा और उसकी भाषा भी हिन्डी ही कहलावेगी । आर्य जब सप्तसिंधु एवं सिंधसे गंगा के मैदानोंकी ओर बढ़े तो वे एक स्थानपर स्थिर नहीं रहते थे । वे अपने निवास स्थान के लिए उपयुक्त स्थानकी खोज में इधर-उधर घूमते रहते थे । इन ही लोगोंकी भाषाने विकसित होकर वर्तमान हिन्दी का रूप लिया है और यह प्रायः उस प्रदेश तक फैली हुई हैं जहाँ तक कि ये आर्य लोग गए। इस प्रकार से मैंने हिन्डी शब्दको हिन्दीका पूर्वरूप अर्थात् अपभ्रंश रूप माना था । मेरे विचार में इसमें कोई असंगति नहीं है और भाषाशास्त्रियों को इसपर और ऊहापोह करना चाहिये ।
सन् १९२९ - ३० के आस-पास नाहटाजीने जिस अभय जैन ग्रन्थालयकी अपने बड़े भाई श्री अभयराजजी नाहटाको स्मृतिमें स्थापना की थी वह ग्रंथालय ही नहीं महत्त्वपूर्ण संग्रहालय भी है। इसमें ४० हजार के करीब हस्तलिखित, ४० हजार मुद्रित ग्रंथ तो हैं ही, साथ ही हजारों ऐतिहासिक महत्त्वके जैनाचार्यों, यतियों, राजाओं के पत्र, पट्टे, पंचांग, चित्र, विज्ञप्ति पत्र, मुद्राएँ, डिब्बियां, कलमदान, गंजफा, दांत, पीतल आदिको कलापूर्ण सामग्री है । यह सब श्रीनाहटाजीने अपने स्वयंके द्रव्य एवं श्रमसे एकत्र किया है । आज इसका मूल्य द्रव्यमें नहीं आँका जा सकता । नाहटाजो जो समय-समय पर साहित्यिक मणि मुक्ताएँ प्रस्तुत करते हैं वे प्रायः सब ही इस सागर में गोता लगाकर निकाली हुई होती हैं। जबतक नाहटाजी बीकानेर रहते हैं वे प्रतिदिन नित्य नियमसे प्रातः अध्ययनार्थ दो-तीन घण्टे यहाँ अवश्य बैठते हैं । इसके लिए यहाँ ही आपके लिए एक पृथक् कमरा है। इस समय आप किसीसे भी, जहाँ तक मुझे मालूम है, नहीं मिलते। आज नाहाजी जो कुछ भी स्वयं बने हैं और साहित्य जगत्को जो वो दे पाए हैं उसमें इस ग्रंथालयका योग कम नहीं है | शायद ही किसी अन्य लक्ष्मीपुत्रने इतने परिश्रम से ऐसी महत्त्वपूर्ण संस्थाका निर्माण किया हो । हाजी के जीवनका प्रत्येक क्षण ज्ञानोपयोगमें व्यतीत होता है । आप यदि उनसे कभी मिलें तो वे आपसे बातें भी इस हीसे संबंधित करेंगे ।
श्री नाहटाजी ऐतिहासिक विद्वान्, गद्य लेखक तो हैं ही कवि भी हैं । यद्यपि इसके लिए उनके पास समय बहुत कम है । नवम्बर सन् ५३ को 'वीरवाणी' वर्ष ६ अंक ५ में आपकी 'श्री महावीर स्तवन' शीर्षक एक सुन्दर कविता प्रकाशित हुई थी । प्रायः साहित्यकार या तो गद्य लेखनमें निष्णात होते हैं या पद्य-लेखनमें | ऐसे विरले ही होते हैं जो दोनों विधाओंपर अधिकार रखते हों। श्री नाहठाजी भी उनमें से एक हैं ।
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श्री नाहटाजी जैसे विद्वान्, मनीषी, साम्प्रदायिकता से परे रहनेवाले सज्जनका अभिनन्दन करनेका देरसे ही सही, जो निर्णय जैन समाजने किया है वह उचित है । हमारी कामना कि श्री नाहटाजी दीर्घजीवी होकर एवं स्वस्थ रहकर भविष्य में भी इस ही प्रकार माँ भारती के भण्डारको भरते रहें ।
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व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३७५
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