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भोजन करने हेतु अथवा किसी अन्य कार्यवश कालेज से बाहर गये थे अतः श्री नाइटाजी बाहर ही कालेजके गोखे पर बैठ गए । कुछ देर बाद पण्डित साहब जब आए तो आपने उतरकर उनसे नमस्कार किया । पण्डित साहबने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा । पहले देखा तो था नहीं इसलिए पहचाननेका तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। श्रीनाहटाजीने स्वयं हो यह कह कर अपना परिचय दिया कि हूँ अगरचन्द नाहटो हूँ । पण्डित साहबका कहना था कि इस प्रकार उनको अपने सामने पाकर उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ था और वे उनकी सादगी से बड़े प्रभावित हुए थे उस समय श्री नाहटाजीके पश्मेकी एक कमानी भी कुछ टूटी सी थी। बाद में जब मैं स्वयं बीकानेर गया और नाहटाजीके प्रत्यक्ष दर्शन किए तो स्वयं भी उनकी सादगी, सीधेपन एवं दूसरोंको सहारा देकर आगे उठानेकी प्रवृत्ति आदि गुणोंसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा।
सन् १९५९ में जब मैं अपनी राजकीय सेवाओंके कारण बीकानेर गया तो सर्वप्रथम मैंने श्री नाहटाजी के प्रत्यक्ष दर्शन किये। ज्यों ही मेरा उनका परिचय हुआ उन्होंने बड़ा प्रेम प्रदर्शन किया। यह उही कारण था कि जब तक में बीकानेर रहा श्वेताम्बर समाजके प्रत्येक उत्सवमें उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे निमन्त्रित किया और अपने विचार वहाँ प्रस्तुत करनेका अलभ्य अवसर दिया । दिगम्बर समाज के तो वहाँ गिने चुने ही घर हैं अतः उनकी ओरसे तो इस प्रकारका कोई आयोजन यहाँ होता ही नहीं था।
श्री नाहटाजीको हिन्दी के साथ साथ राजस्थानी भाषासे भी बड़ा प्रेम है और उसकी श्रीवृद्धि करने का भी आपका बड़ा प्रयत्न रहता है। एक बार जब मैं बीकानेर था तो आपने कहा कि राजस्थानी हमारी मातृभाषा है अतः उस ओर भी हमें ध्यान देना चाहिये । बातों ही बातों में ते हुआ कि सप्ताह में एक ऐसी गोष्ठीका आयोजन हो जिसमें राजस्थानी में ही वार्तालाप, भाषण, चर्चा आदि हों। मैंने भी उसमें सम्मिलित होनेकी हाँ कर दी और प्रथम कार्यवाही में सम्मिलित भी हुआ। सच मानिए जब मैं यहाँ अपनी टूटी-फूटी जयपुरी भाषामें बोला तो अपनी असमर्थता और अज्ञानके कारण शर्मसे शुरू-शुक गया। उस गोष्ठी में वही मेरी प्रथम और अन्तिम उपस्थिति थी और शायद वह गोष्ठी आगे उस रूपमें चली भी नहीं ।
किया के ठीक स्थानसे
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श्री नाहटाजी में किसी प्रकारका साम्प्रदायिक आग्रह नहीं है । मेरे बीकानेर प्रवास कालमें एक क्षुल्लक सहजानन्द वहाँ आए आपने एवं आपके भाई श्री अभैराजजी ने उन्हें अपने शिववाड़ीके उद्यान में ठहराया, उनके आहार पान आदिको व्यवस्था की और उनके प्रवचनोंका भी प्रबंध किया। साधुओं के पास मैं बचपन से ही नहीं जाता या बहुत कम जाता है किन्तु नाहटाजीके आग्रह पर मैं उनके पास गया । क्षुल्लकजीका कहना था कि वे भगवान् महावीरके समवसरण में साधु थे और मनकी कमजोरीके कारण मुक्ति लाभ नहीं कर सके तथा जन्म मरणके चक्कर में भटक रहे हैं । आदि । ऐसा उन्हें जातिस्मरण हुआ है । उन्होंने वहाँ यह भी कहा कि वे अष्टापद जहाँसे भगवान ऋषभदेवने मुक्ति लाभ परिचित है एवं अष्टापद पर भरतने जिनमंदिरोंका निर्माण कराया, वे जहीं हैं, वह स्थान भी जानते हैं। इस समय वह स्थान बर्फ से ढका हुआ है। बर्फ हटाने पर मंदिर निकल सकते हैं । उनके इस कथनका विश्वास कर नाहटाजी स्वयं तो नहीं किन्तु उनके बड़े भाई वहाँसे उनके साथ हिमालयकी ओर गए किन्तु बर्फ से ढके होनेसे यह प्रयत्न सफल नहीं हुआ और अष्टापद संबंधी ज्ञान जहाँका तहाँ ही रहा। इसही सिलसिले में मुझे नाहाजीकी मितव्ययिता एवं व्यावहारिकताका भी ज्ञान हुआ । इनही क्षुल्लकजीका भाषण एक बार बीकानेरसे ३-४ मील दूरी पर आयोजित किया गया था जिसे सुनने हेतु मैं और मेरी श्रीमतीजी भी जा रहे थे । तांगे में जब दरवाजेके बाहर निकले तो देखा श्री नाहटाजी खड़े हैं। बैठनेका आग्रह किया तो बोले कि इसी लिए तो खड़ा हूँ कि कोई ऐसी सवारी मिल जाय जिसमें स्थान हो, नहीं तो व्यर्थ ही पूरे तांगेके
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण ३७३
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