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________________ करना, कोई मीटिंग आदि हो तो उनमें भी सम्मिलित होना, खास खास दिनों में व्याख्यान श्रवण करने जाना और अपना अध्ययन अध्यापन करना । आदि आपके जीवनके प्रधान कार्यक्रमसे बन गये हैं । शायद ही कोई जैन-अजैन ऐसा पत्र होगा जिसने इन्हें लेख आदि भेजनेका अनुरोध किया हो और इन्होंने इसे नहीं भेजा हो । किसी भी विषय पर आपकी लेखनी अबाध गतिसे अग्रसर होती है । बिना इस बातकी अपेक्षा किये ही कि यहाँ कौन सा शब्द उपयुक्त होगा, आपकी लेखनी इस गतिसे दौड़ पड़ती है यही कारण है कि आज ये इतने बड़े लेखक हो गये हैं । शताधिक शोध छात्रोंको पथ-प्रदर्शन, हजारों व्यक्तियोंको साहित्यिक एवं धार्मिक सामग्री प्रदान करना इनके लिए साहजिक था। आपके संग्रहमें ४०००० हस्तलिखित ग्रन्थः ४००० मुद्रित ग्रन्थ एवं कलाभवनमें ३००० चित्र होंगे । आप इतनी विशाल साहित्य सामग्रीको लिये उसमें अकेले ही तप रहे हैं । उनसे कोई भी सज्जन जो जितना चाहे लाभ ले सकता है । आपने अपने ऐतिहासिक एवं साहित्यिक ज्ञानसे जैन धर्म और खासकर खरतरगच्छकी जो महिमा बढायी है उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है। आपको जैसे प्राप्त होता है आप दिन भरमें ६-७ सामायिकें कर लेते हैं, जिससे पठन पाठनका कार्य सुचारु रूपसे हो जाता है । आप सदा यही कहते रहते हैं कि मेरे पर तो इन सामायिकों का बड़ा भारी उपकार है और आज जो मैं इस अवस्था पर हूँ उसका मूल कारण ही ये ही है । इसी प्रकार सामायिक करनेकी प्रेरणा सबको देते रहते हैं। मेरे पर तो स्नेहके साथ ही साथ इतनी कृपा है जिसकी अन्यथा अपेक्षा नहीं की जा सकती है । करीब २।। वर्ष पूर्वकी बात होगी जबकि कलकत्ते में एक बहुत बड़ी बीमारीसे छुटकारा पानेके पश्चात् नई जिन्दगी लेकर जब उसके ४ महीने पश्चात् बोकानेर विश्राम लेनेके लिये गया तो आप मेरी सुख शाता पृच्छाके लिए पधारा करते । एक दिन आपने फरमाया कि 'अपना सम्बन्ध और पज्य मामा साहबका स्नेह प्रेरित करता है कि तुम्हें कुछ आध्यात्मिक प्रेरणा दूं। इसलिए मैंने सोचा है कि घण्टाभरके लिए यहाँ आऊं और हम ज्ञान चर्चा करें। आपके साथ ज्ञान चर्चाके योग्य तो मैं था ही कहीं। यह तो आपकी कृपाके सिवाय और था ही क्या ? उसी दिनसे आपने पधारना प्रारम्भ कर दिया और हमारा यह क्रम चलता रहा । चलता रहा तब तक, जब तक कि मैं आपके यहाँ जाने योग्य नहीं हो गया। फिर भी जब मैं गया तो आपने कहा कि 'तुम अभी क्यों आये हो मैं वहाँ आता ही । मैंने कहा कि 'अब मैं आ सकता हूँ इसलिए आया हूँ। आपने बड़ा भारी कष्ट किया इसके लिए मैं आपका हार्दिक आभारी हैं।" मैं बहुत व्यक्तियों के सम्पर्क में आया, बहत व्यक्तियोंसे मिला पर ऐसा कर्तव्यपरायण निष्ठावान एवं लगन वाला मानसिक कार्यकर्त्ता मेरी नजरोंमें नहीं आया | जब कभी देखिये तभी अध्ययन मनन एवं पठनका कार्य चलता ही रहता है। इनके अध्ययनको देखकर नं तो आश्चर्यका ठिकाना ही नहीं रहता कि क्या ही गजबका है इनका क्षयोपशम कि वे थकते ही नहीं, चाहे रात-दिन पढ़ते ही रहें। __इनके पुस्तकालय को लीजिये। चारों ओर पुस्तके छिटकी हुई पड़ी हैं। बीचमें नाहटाजी बैठे अपने कार्यमें व्यस्त हैं । आस-पासमें किसीको आप लिखा रहे हैं तो कोई अपने आप लिख रहे हैं। कोई इनसे प्रश्न पूछता है तो कोई अपने शोध कार्य सम्बन्धी अध्ययनमें लीन है। इनके साधु जीवनकी कहाँ तक प्रशंसा की जाय । न खानेको चिन्ता, न पीनेकी और न सोने की ही और न नहाने निपटे की ही। जहाँ जो खानेकी मिल गया वही ठीक । न नमकीनका विचार और न मीठेका ही सोच जहाँ जो मिल गया वही ठीक । कई यात्राओंमें नाहटाजीको खाते पीते देखकर मनमें विचार आता कि नाहटाजीका इन चीजोंको व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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