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प्रवास में भोजन आदिके लिए मेजबानको कोई कष्ट देना उनको पसन्द नहीं । जहाँ उनकी सुविधा और संस्कारोंके अनुकूल व्यवस्था नहीं, वहाँ अलगसे अतिरिक्त व्यवस्थाके लिए मेजबानको परेशानी देना नहीं चाहते । स्वयं संयमसे काम चला लेते हैं ।
पिछले दिनों बम्बई विश्व विद्यालयकी प्राकृत सेमिनार के लिए आमंत्रित होकर बम्बई पहुँचे तो भारत जैन महामंडल के कार्यालय में भी आये । संध्याका समय था । भगवान् महावीरके २५ सौंवे निर्वाणमहोत्सवके सम्बन्धमें प्रकाशित होने वाले साहित्यकी चर्चा में डूब गये । सुझाव देने लगे और इधर सूर्य अस्ताचलकी ओर बढ़ने लगा । मैंने पूछा – “संध्याका भोजन " ? सहजतासे बोले - “मैं रात्रि - भोजन तो नहीं करता ।” फिर मुझे संकोच में पड़ा देखकर बोले कि परेशानीकी कोई बात नहीं, यदि कुछ फल, दूध वगैरह मिल सके तो काम चल जायेगा । आफिसमें बैठकर ही थोड़े फल एवं दूध लिया और फिर साहित्य-चर्चा में डूब गये । न भोजनकी चिन्ता न नियममें व्यवधान । साहित्य और विद्याकी धुन में ही मस्त रहकर आनन्द मान लेना उनका स्वभाव है ।
जैन समाज में समन्वय, प्रेम और मैत्रीपूर्ण वातावरणके लिए श्री नाहटाजी सदा प्रयत्नशील रहते हैं । सम्प्रदायका भेद नहीं, साम्प्रदायिकता के आग्रहसे मुक्त हैं । श्वेताम्बर आचार्य हों या दिगम्बर मुनि, स्थानकवासी हों या तेरापन्थी - सबके साथ आपका निकटतम सम्बन्ध है । जिन आचार्यों, साधुओं एवं साध्वियों के ज्ञान, ध्यानसे वे प्रभावित होते हैं, उनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करते हैं । जिस विचारको ठीक समझते हैं उसको अपने लेखों और ग्रन्थोंमें उद्धृत करते हुए यह ध्यानमें नहीं रखते कि वे उनके सम्प्रदाय के हैं या नहीं । नाहटाजीकी इसी गुणग्राहकताने उनको किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं बल्कि सारे समाजका प्रिय विद्वान् बना दिया है ।
श्री नाहटाजी कर्मयोगी हैं । साहित्य - मन्दिरके ऐसे पुजारी, जो प्रतिपल अपनी साहित्य साधना में संलग्न रहते हैं । कहीं भी रहें, कहीं भी जायें उनकी शोध-वृत्ति और जिज्ञासा प्रतिपल सजग रहती है । संग्रह और परिग्रह धार्मिक दृष्टिसे गुण नहीं है किन्तु आपने संग्रहको भी गुणके रूपमें प्रतिष्ठित कर दिया है । हजारों हस्तलिखित दुर्लभ ग्रन्थ, हजारों प्रकाशित ग्रन्थ, प्राचीन कलाकृतियां, मूल्यवान सिक्कों आदिका उनका निजी संग्रहालय एक संग्रह तो अवश्य है किन्तु परिग्रह नहीं ।
वर्षके बारह महीनोंमें से ग्यारह महीने वे अपने संग्रहालय और पुस्तकालय में बैठकर अध्ययन एवं लेखनमें रत रहते हैं । वे ज्ञानका कोरा बोझ नहीं ढोते, उसे चरित्रमें उतारते हैं ।
नाहटाजी की एक दुर्लभ विशेषता यह भी है कि वे नये साहित्यकारों, नई पीढ़ीके युवा लेखकोंको प्रोत्साहित करते । उनकी विद्वत्ता वह वटवृक्ष नहीं, जिसके नीचे कोई नन्हा पौधा पनप ही नहीं सकता वरन् उस मेघकी तरह है जो, नये अंकुरोंको प्रस्फुटित होनेके लिए प्रोत्साहनका जल देता है । मैंने आजसे लगभग कई वर्षों पूर्व अपनी नई प्रकाशित दो पुस्तकें उन्हें भेजी थीं, जिसकी प्राप्ति और बधाईका पात्र उन्होंने हाथोंहाथ भिजवाया। उस समय तक उनसे मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ था लेकिन उनके उस पत्र से मुझे अत्यन्त आनन्द और उत्साह मिला। इसी प्रकार अनेक छोटे-बड़े, नये-पुराने लेखकों और कवियों की विशेषताओंको वे सराहते, प्रोत्साहित करते रहते हैं ।
श्री नाहटाजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्वको समझना उतना ही कठिन है, जितना कठिन उनकी लिखावटको पढ़ना । मैंने उनकी लिखावटके सम्बन्धमें उनसे जब शिकायत की तो वे मुस्कुराकर टाल गये । वैसे उनके पत्र पढ़ते-पढ़ते एवं जैनजगत् में प्रकाशित होनेवालों लेखोंको टाईप कराते-कराते उनकी लिखावट पढ़ने में
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३६५
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