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मेरो दृष्टिमें श्री अगरचन्द नाहटा श्री चन्दनमल 'चाँद' एम० ए०, साहित्यरत्न
स्वस्थ शरीर, लम्बा कद, धोती कुर्ते पर बन्द गलेका सफेद कोट, सिर पर बीकानेरी पगड़ी, मोटे फ्रेमका चश्मा लगाये बड़ी-बड़ी मूँछों वाले श्याम वर्ण, व्यक्ति कलकत्तेके एक समारोहमें बैठा देखकर मुझे लगा कि कोई सेठ है जिसे लक्ष्मीकी कृपासे इस साहित्यिक समारोहमें भी मंच पर प्रतिष्ठित कर दिया गया है । लेकिन जब संयोजकने परिचय देते हुए कहा कि साहित्य, कला और पुरातत्त्वके शोधक श्री अगरचन्दजी नाहटा आपके सामने, अपने विचार व्यक्त करेंगे और वही सेठ माईकके सामने खड़ा हुआ तो मैं चौंक उठा । एम० ए० की परीक्षा में हिन्दी साहित्य के इतिहासके प्रश्नोंको हल करते समय जिन अगरचन्द नाहटाका नामोल्लेख पृथ्वीराज रासोकी प्रामाणिकता के सन्दर्भ में कई स्थानों पर किया था, क्या यही वे नाहटा हैं ? मेरी कल्पना में उभरता हुआ उनका स्वरूप प्रत्यक्ष के इस स्वरूपसे एकदम भिन्न था। लेकिन जब उनका धारा प्रवाह शोधपूर्ण वक्तव्य हुआ तो विश्वास करना ही पड़ा कि ये ही वे श्री नाहाजी हैं, जिनकी विद्वत्ताका मैं कायल था और जिनसे मिलनेकी मेरी भावना अत्यन्त प्रबल थी । संयोग ही कहना चाहिए कि मेरी जन्मभूमि श्री डूंगरगढ़ बीकानेरके निकट होते हुए भी उनसे पहली बार वहीं प्रत्यक्ष मिलना हुआ । कलकत्तेकी उस दूर-दूरकी मुलाकातके बाद तो अब तक नाहटाजी से मिलने, चर्चा करने और पत्र-व्यवहारके अनेक अवसर प्राप्त हुए हैं और ज्यों-ज्यों उनके साथ परिचय एवं निकटता बढ़ी है, उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू मेरे सन्मुख स्पष्टतासे उजागर हुए हैं ।
श्री नाहटाजीके अध्ययन - लेखनसे हिन्दी, राजस्थानी और प्राकृतके पाठक भलीभांति परिचित हैं । उनके हजारों लेख एवं सैकड़ों ग्रन्थ उनकी विद्वत्ताके परिचायक हैं । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रतिमाह नियमित रूपसे उनके शोधपूर्ण निबन्ध प्रकाशित होते रहते हैं । अतः मैं इस सम्बन्ध में अधिक कुछ न लिखकर नाहटाके व्यक्तित्व पर ही कुछ लिखना चाहूँगा ।
श्री नाहटाजी वैश्यकुलके सम्पन्न परिवार में लक्ष्मीके लाडले होते हुए भी साहित्यके अनुरागी कैसे बने, और मुश्किलसे प्राइमरी तककी स्कूली शिक्षा के बावजूद उन्होंने एम० ए० और पी-एच० डी०के विद्यार्थियों के मार्गदर्शक बनने की योग्यता कैसे प्राप्त की, यह सचमुच प्रेरक एवं आश्चर्यजनक है । ज्ञानकी अखण्ड प्यास, विद्याकी लगन, सत्य के अनुसन्धानकी तीव्र भावना और सतत श्रम ही इस सफलता के साधन हो सकते हैं और श्री नाहटाजीके व्यक्तित्वमें ये गुण सहजरूपसे मिलते हैं । स्वभावसे सरल, निरभिमानी किन्तु वाणी से अत्यन्त स्पष्ट तथा निर्मीक ।
जो सत्य लगा उसे कहने में कहीं संकोच अथवा भय नहीं । खुले रूपमें उसे कहना और लिखना वे अपना धर्म मानते हैं । इसमें किसीको प्रिय अप्रिय लगे तो इसकी परवाह नहीं । जैन संस्कार इनके जीवनमें रमे हुए हैं । सात्त्विकता और सहजता इनके व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण गुण हैं । कहीं कोई दिखावा प्रदर्शन और बड़प्पन नहीं । मिलनसारिता ऐसी कि सामान्य व्यक्तिको अपने पांडित्यके बोझसे कभी बोझिल नहीं होने देते और विद्वानोंके बीच विद्वान्की तरह उसी सहजता से पगड़ी लगाये गलेमें चादर डाले शोधप्रबन्ध पढ़ रहे होते हैं या चर्चा में व्यस्त ।
सादगी और धार्मिक संस्कार उनकी अपनी विशेषता है । जमीकन्द नहीं खाना, सामायिक और नियमित स्वाध्याय करना उनकी
३६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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रात्रि भोजन नहीं करना, दिनचर्याके अंग हैं । परन्तु
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