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________________ परम्परागत आचरण तक ही सीमित रखना यथेष्ट है क्या ? जीव जड़ के चिर सम्बन्धको व्युच्छिन्न करनेकी ओर, हम जैन संस्कार पाकर भी स्वेच्छासे स्वभावतः प्रवृत्त क्यों नहीं होते ? ऐहिक आभिजात्य प्रदर्शनकी ओर हम सहसा क्यों झुक जाया करते है ? मनोद्वेगोंको युक्त समय पर रोकने में हम कैसे समर्थ हो सके ? आदिसे लेकर · · · जीवके जन्म जन्मान्तर प्रवाही अस्तित्वको स्पष्ट रूपसे कैसे प्रमाणित किया जाय ? हमारी बाह्य रुचि न रहने पर भी अनावश्यक प्रसंगों पर मोहावेश या कषायोंका उदय कैसे उपस्थित होता है एवं इसका परिमार्जन करने हेतु हम आचार व्यवहारको कैसे परिवर्तित व्यवस्थित करें ? ध्यानसाधनाकी रुचि व अभ्यास कैसे ग्रहण व उद्दीप्त किया जाय कि कायिक सुखोंकी अपेक्षा सद्भावनात्मक वैचारिक अनुभतियोंकी ओर हम आकर्षित हो सकें ? ज्ञानका अर्थ व उद्दिष्ट दिशा क्या है ? जैन दर्शन सम्मत ज्ञानकी स्व पर प्रकाशक परिभाषाका ध्येय विस्तार कैसा व कितना माना जाय कि हमें मार्गदर्शन मिल सके ? पुण्य व पापकी व्यावहारिक किन्तु प्रवाह परिस्थिति परिवर्तित व्याख्याओं व धारणाओंके अनिर्धारित तुमुलके अवेष्टनसे प्रताड़ित होकर हम आज जो दिगभ्रान्त हो उठते हैं उसका कोई आत्मोन्नति-सम्मत विश्लेषण व स्पष्टीकरण किया जा सकता है कि नहीं ? रुचि प्रेरित मानसिक साधनाका अवलंबन कैसे किया जाय तदर्थ किन-किन अस्वस्थ वैषयिक प्रवृत्तियोंकी तिलाञ्जलि देनी आवश्यक है ? गंभीर दार्शनिक प्रश्नों व समस्याओंको अपनी-अपनी मेधानुसार सुलझानेका निष्कपट प्रयत्न भी सदा चलता रहता-उपासना की व्यक्ति विशेषके दृष्टिकोणसे क्या मर्यादा है ? व्यावहारिक व आन्तरिक उपासनाकी सीमा रेखाएँ किन भावनाओंके उद्वर्तनके सहारे निर्धारित की जा सकती हैं। संकोच विकास अथवा सुख-दुःख कायिक इंगित ही क्या चेतन-अचेतनकी सीमा निर्धारित करनेका मापदण्ड है ? प्रत्येक जीवके कर्मोकी सत्ता क्या अपना इतना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है कि जीव उसके प्राबल्य वंश सदा सर्वदा ही नतमस्तक होनेको बाध्य होता रहे। इसका अपवाद कब कैसे व क्यों होता है या हो सकता है ? . कितने संवादोंकी यहाँ गणना की जाय बीच-बीच में कारणवश व्यवधान पड़ने पर भी यह क्रम वर्षों तक चलता रहा । नाहटाबन्ध इन चर्चाओंमें अपेक्षाकृत अधिक लगनसे भाग लिया करते, प्रेरक बनते, उत्साहित करते व अपने अध्ययन-मनन शोधके उपहारोंको मित्रोंमें अनवरत बाँटते रहते । चर्चा प्रसंगमें अनेक बार आधनिक विज्ञानकी कई नई उपलब्धियाँ, जिनका पद विषयक जैन तत्त्व विवेचनकी सम्मतियोंसे संतुलन करना आवश्यक प्रतीत होता, गहन मनोविशेषका हेतु बन जातीं। उस समय नाहटा बन्धुओंका जैन सिद्धान्त आग्रह देखते बनता-जैन विवेचन युक्तिबाह्य प्रमाणित होने पर उनके हृदयमें आघात पहचता और उसका समन्वय (युक्तिसिद्ध) किये जाने पर बाँछे खिल जातीं। इन संवाद-चर्चा गोष्ठियोंका मनोभावों व आचरण पर कितना प्रभाव पड़ता था यह तो उसमें भाग लेने वाले व्यक्ति ही निर्णय कर सकते हैं । परन्तु नाहटा बन्धुओंके उन अवसरों पर परिस्फुट होने वाले उत्साह व लगनके साक्षी तो सभी रहे हैं तभी उनके आहवान पर अनेक बार उनके स्व स्थान पर इन गोष्ठियोंका आयोजन होता रहा है। साहित्य साधनाके साथ-साथ विचार आदान-प्रदान साधना, वह भी सूक्ष्म निर्णय व समन्वय दृष्टि मनोनियोग पूर्वक करनेकी कृति सहित नाहटा बन्धु ओंकी विशिष्ट उपलब्धि है। आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि वे अनागत कालमें भी पूर्वकी भांति, साहित्य सेवा परायण बने रहेंगे एवं अपने अध्ययन मनन लेखनके फलस्वरूप नये-नये विचार उपहार भावी संततिके लिये देते रहेंगे। ३६२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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