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________________ मैं इस दिशामें यत्किचित कार्य कर सका। आप ही की प्रेरणा एवं परामर्शके आधारपर मैं 'प्रकृतिसे वर्षा ज्ञान' का पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध तैयार कर सका। आपने इसके प्रकाशनकी व्यवस्था की। मैं आपकी इस कृपाके लिए पूर्ण आभारी हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि इस अवसर पर मैं अपनी ओरसे आपको श्रद्धा-सुमन प्रस्तुत कर रहा हूँ। ऐसे मनीषी-विद्वानका सान्निध्य जिस किसीको प्राप्त होगा, वह निहाल हो जायेगा। प्रभु आपको शतायुः करें और आपके स्वास्थ्यको रक्षा करें ताकि आप द्वारा निरन्तर साहित्य-साधना होती रहे और मां राजस्थानीका भण्डार भरा जाता रहे । वन्दे महापुरुष ! ते कमनीय कीर्तिम् डॉ० ईश्वरानन्द शर्मा शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी. उत्तुंग शिखर मारवाड़ी पगड़ी, ओठों पर सघन पीन बलखानेको उत्सुक मूछे, निर्मल नेत्रोंमें सरल पैनी दृष्टि, मुखाकृत पर शालीनता और सज्जनताकी युग्मधारा, गतिमें गौरव, बन्द गलेका कोट, उसपर पड़ा उत्तरीय मारवाड़ी धोती और साधारण उपानत्-यह व्यक्ति त्व है उस महापुरुषका-श्री अगरचन्द नाहटाका जो सैकतावृतधरा मरुधरामें ज्ञानगंगा प्रवहण कर रहा है, शोधसागरतितीषुओंको सेतु बनकर पार उतार रहा है और ज्ञानामृत भोजनसे अहर्निश छका रहनेके कारण कालगाल विलुप्त सरस्वतीको समुद्धृत कर रहा है। मैंने श्री नाहटाजी के लिये श्रद्धाके जिस बीजको कभी मानसधरा पर अनायास बोया था; वह उनके प्रभावक, निश्छल आत्मीयता भरे सरल व्यक्तित्वके जीवनदानसे अंकुरित, पुष्पित और फलित होता गया और अब उसका फल मधुर तो है ही, आनन्दप्रद भी है। बात कुछ वर्ष पूर्वकी है। मैं शोधगुरु और शोध विषयके अन्वेषणमें लगा हुआ था। वर्ष पर वर्ष बीत गये, न शोधगुरु ही मिला और न विषय ही। कहते हैं, बारह वर्षोंके बाद घुरेके दिन भी बदलते हैं और मेरे भी बदले । आनन फाननमें शोधगुरु मिल गये और श्री नाहटाजीने शोध विषयोंका अम्बार सा प्रस्तुत कर दिया। एक-से-एक आकर्षक, नये-पुराने, अछूते-अर्द्धछूते, अपूर्ण-पूर्ण कई तरहके, राजस्थानी, हिन्दी, मराठी जैन कवि, जैनेतर कवि-सभी भव्य, आकर्षक और प्रेरक । ऐसी स्थितिमें विषयचयनमें मेरी वही दशा हुई, जो दशा निर्धन व्यक्तिकी चमकते हुए रत्नोंसे भरे भण्डारमें प्रथम बार पहुंचनेपर होती है । मैंने अनुभव किया कि श्री नाहटाजीका हृदय, जिज्ञासुओंके लिए कितना संवेदनशील, कितना सहायक और कितना अधिक मार्गदर्शक है। उन्होंने अपने विशाल पुस्तकालयमें शोध विद्वानोंके लिये आवास व्यवस्था भी कर रक्खी है। श्री नाहटाजीके आत्मीय भावकी पीन परतके कारण कोई भी छात्र यह अनुभव नहीं कर पाता कि वह अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र रह रहा है। आप किसी भी समय और कोई भी साहित्यिक उलझन श्री नाहटाजीके सम्मुख प्रस्तुत कर सकते हैं-वहाँ समाधान तैयार है । श्री नाहटाजी तन, मन और धनसे जिज्ञासु शोध-छात्रोंकी सहायता करते हैं और करवाते भी हैं । प्रस्तुत ३३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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