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________________ लेखकको अपने शोधकार्यके निमित्त लगभग दो मासकी गुजरात और राजस्थानकी यात्रा करनी पड़ी थी। इस सरस्वती यात्राको सफल बनाने में श्री नाहटाजीका बहुत बड़ा हाथ था । उन्होंने लेखकके लिए पाटण, अहमदाबाद, बड़ौदा, छाणी, सूरत, मेहसाणा, जैसलमेर आदिके आचायों, सूरियों, पट्टाधीश्वरों धनीमानी सज्जनोंको अनेक पत्र लिखे और यात्राको धेयस्कर बनाया। लेखक ने अपने सारस्वत प्रवासमें यह अनुभव किया कि भारतके विभिन्न प्रान्तों, परिवारों और घनीमानी प्रतिष्ठितोंमें श्री नाटाका कितना अधिक आदर सम्मान है। धर्माचार्य उन्हें अपना आशीर्वाद भाजन अभिन्न अंग समझते हैं तो धनीमानी वर्ग उन्हें प्रतिष्ठित परिवारका । विद्वत् वर्गकी दृष्टि में श्रीनाहटा कनिष्ठिकाधिष्ठित विद्वानों में से हैं तो शोध संसारमें ओढ़र दानी । भारतके किसी भी प्रान्तमें चले जाइये; श्री नाहटाजीकी कलकीति वहाँ आपका स्वागत करनेके लिये पहलेसे ही तत्पर मिलेगी । श्री नाहटाजीने समयके महत्वको समझा है। वे जोवनका एक क्षण भी व्यर्थ जाने देना नहीं चाहते । दिन रातके चौबीस घण्टों में वे प्रति पलका सदुपयोग उठाते हैं। मैं संस्कृतकी इस शब्दावलीको उनमें अक्षरशः चरितार्थ पाता है कि उम्रका क्षणलेश करोड़ों स्वर्णमुद्राओंसे नहीं खरीदा जा सकता। उसी अमूल्य अलभ्य क्षणको अगर व्यर्थमें बिता दिया तो उससे अधिक हानि और क्या हो सकती है। श्री नाहटाजी प्रतिदिन १४ घण्टे पढ़ते हैं, लिखते हैं और लिखाते हैं। वे न निन्दा करते हैं और न निन्दा सुनते है । अगर कोई व्यक्तिगत आक्षेपों पर आ जाता है अथवा निन्दापरक सही बातें भी कहता है तो श्रीनाहटा जी उसे 'विकथा' की संज्ञा देकर टाल देते है और अपवाद सुनने की अनिच्छा से अपने पठन कार्यमें लीन हो जाते हैं । श्रोताको रुचिरहित पाकर वक्ताका कथनोत्साह भी मन्द पढ़ जाता है । इसका सुफल यह मिलता है कि परदोष दर्शनके पापसे तो हम बचते ही हैं हमारा अमूल्य समय रूपी हीरा भी कोड़ियोंमें नहीं चिकता । श्री नाहटाजी शोधरस पीन भ्रमर हैं । उन्हें नई उपलब्धिसे अपार सन्तोष मिलता है, वे गद्गद् हो जाते हैं । कभी-कभी तो इस रसमें वे इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें खाने-पीने तककी सुध नहीं रहती। उनकी यह ध्यानस्थिति तभी टूटती है जब घरवाले बार-बार आवाज देकर उन्हें याद दिलाते हैं कि 'भोजनका समय हो गया है' -अधिक देर स्वास्थ्य के लिये अहितकर है आदि आदि । श्री नाहटाजी को मैं निरा शिक्षाशास्त्री, साहित्य रसिक और अवसर पर मेरे अनुभवने बताया कि वे परम कारुणिक महामानव भी है। तीन सालोंसे दुर्दान्त दुर्भिक्षकी द्रष्ट्राके नीचे दब चुका था चतुर्दिक अभावकी मन विचलित कर दिया था। चूंकि मेरा मन भी संकट प्राप्त जनतासे मैंने शोधरसमें लीन श्री नाहटाजी को ग्रामीणोंके दुःख दर्द, अभाव अभियोग की देखकर आश्चर्य हुआ कि महामानव के नेत्र सजल थे, करुणाका आपूर अपने चरम स्तर पर था। उन्होंने अपना समस्त ध्यान इस दर्द की स्थितिपर केन्द्रित करते हुए स्वयंकी जेबसे और नाहटा धर्मार्थ न्यास और धनी मानियोंसे सक्रिय साहाय्य देना दिलाना स्वीकार किया और उन्हें तब और भी प्रसन्नता हुई जब उनका दान पात्र लोगों तक पहुँचा । जब कभी मैं उनके पास बैठता हूँ, वे गांव और गाँववालोंका हालचाल अवश्य पूछते हैं । १. आयुषः क्षणलेशोऽपि न लभ्यो स्वर्णकोटिभिः । स एव व्यर्थतां नीतः का नु हानिस्ततोऽधिका ।। " Jain Education International कलाप्रेमी ही समझता था, लेकिन बीकानेरका ग्राम जीवन निरन्तर स्थितिने धैर्य धनियों का भी सहानुभूति रखता है, इसलिए कहानी सुनायी। मुझे यह व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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