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________________ निबन्ध था। दूसरे ग्रन्थमें भी अभीप्सित सामग्री थी। मैंने उस निबन्धमें वर्णित सामग्री ( रचनाओं की उपलब्धिके लिए पूछा तो इतना ही उत्तर मिला कि आप पहले इन निबन्धोंको पढ़ लीजिये और 'रूपरेखा' बनाकर विश्वविद्यालयसे स्वीकृति प्राप्त कर लीजिये । मैंने 'रूपरेखा' बनाने में सर्वाधिक उपयोग नाहटाजी के उस निबन्धका ही किया और 'प्रबन्ध' लिखने में अभय जैन ग्रन्थालयमें सुरक्षित अधिकांश हस्तलिखित प्रतियों का । नाहटाजी की महती कृपा से ही अन्यत्र सुरक्षित 'बस्ते' भी मुझे देखने को मिल सके । अन्यथा उन 'बस्तों के दर्शन करना मेरे लिए संभव नहीं होते। नाहटाजी के इस निबन्ध जैसे न मालूम कितने अन्य निबन्ध होंगे जो मेरे जैसे उपाधि प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए आधार बने हों ! अस्तु । नाहटाजीको नमस्कार करके मैं वहाँसे रवाना हुआ। मैं प्रसन्न था और नाहटाजीको उन ग्रन्थोंको विशेष सावधानी से थैलेमें डालकर ले जा रहा था। उस दिन मैंने उनसे प्रेरणा लेते हुए सोचा कि शोध कार्य केवल उपाधि-प्राप्तिके लिए ही नहीं होना चाहिए और न ही दूधमें पानी मिलने वाली प्रवृत्ति ही अपनाई जानी चाहिए। पुस्तकोंपर दयाभाव रखनेकी सीख भी नाहटाजीने अत्यन्त मधुर ढंगसे दी। उनकी सीख सही है क्योंकि पुस्त कोंके साथ करता करनेसे वे रुग्ण होकर रुष्ट हो जाती हैं। - 'रूपरेखा तैयार करके नाहटाजी को दिखलाई। उन्होंने एक-आध स्थान पर सुझाव देकर उसे पसन्द किया। फिर मैं उनके 'ग्रन्थालय में आने जाने लगा और आवश्यक ( मुद्रित व हस्तलिखित-ग्रन्थ ) घर लाने लगा । इतनी सुविधा प्राप्त करके मैं कृतकृत्य हो गया। ___ नाहटाजीकी कार्य-कुशलताको देखकर मैं आश्चर्यचकित होता रहता हूँ। जब भी जाता हूँ, उन्हें ग्रन्थोंकी ढेरियों के बीच आसीन देखता है । वे समय को व्यर्थ खोना तो शायद सीखे ही नहीं हैं। हर-समय पढ़ते-लिखते रहना तथा अपने नित्य कार्य घड़ीको सुंइयोंके आधारपर करना । नियमसे पत्र लिखना या लिखाना भी उनके कार्यक्रमका एक आवश्यक अंग है। नित्य आनेवाली 'डाक'को देखकर प्रतीत होता है मानों किसी 'सरकारी कार्यालय में आने वाली 'डाक' हो । मनुष्यका मस्तिष्क आराम भी चाहता है पर नाहटाजीका मस्तिष्क चौबीस घण्टोंकी अवधिमें १४ से १६ घन्टोंतक कार्यरत रहता है । मैंने उन्हें ग्रन्थालयमें सोते हुए या आराम करते हुए देखा ही नहीं। 'काम से काम करते रहना ही उनका अभ्यास हो गया है। न कभी 'गप्प-शप्प' करते हैं और न किसी प्रकार की व्यर्थकी बात ही। शनिवार-रविवारके दिन 'ग्रन्थालय' में साहित्य-गोष्ठीका आयोजन नियमित रूपसे किया जाता रहा है। नाहटाजी व आठ-दस अन्य व्यक्ति एकत्र होकर साहित्य-चर्चा करते हैं और नये लेखकोंको प्रेरित करते हैं कुछ लिखनेके लिए । सप्ताहमें जो भी विशेष रचना की जाती है उसे वहाँ सुनाई जाती है और फिर आवश्यक चर्चा होती है उस रचनाके विषयमें। इस प्रकारकी परिचर्चा एक दिन हो रही थी। मैंने नाहटाजीसे एक विषय बतलाया जिसे मैंने दूसरी बार पी-एच. डी. की उपाधिके लिए शोध-प्रबन्ध लिखनेके लिए चुना था। उन्होंने उस विषयसे सम्बन्धित बहुतसे ग्रन्थोंका विवरण उल्लेख तत्काल बतला दिया। मैं विस्मित था कि इतनी स्मरण शक्ति, इतना अध्ययन और इतनी कर्तव्यनिष्ठा कितने अध्ययनशीलताका १. तेरापन्थी जैन श्वेताम्बर सम्प्रदायका राजस्थानी और हिन्दी साहित्य । ३३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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