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ही दो व्यक्ति कमरेमें प्रविष्ट हए । एक व्यक्तिके पासके कमरेकी पुस्तकोंको टटोलकर कुछ ग्रन्थ हाथमें लेकर आया, जो अप-टू-डेट था। दूसरे ही पल एक सज्जनने जूती खोलकर कमरे में प्रवेश किया। ऊंची-ऊंची पगड़ी, श्वेत कोट व धोती पहने हुए और गलेमें सफेद दुपट्टा धारण किये हुए थे वे । उन्नत ललाट, गठे हुए बदन व सौम्य स्वरूप वाले उन महानुभावने धीरेसे पूछा “कहिये कहाँसे आये हैं ?"
मैंने कहा, "यहीं ( वीकानेर ) से । मुझे श्री अगरचन्दजी के दर्शन करने हैं। वे बोले-"रिसर्च करते हैं ?" मैंने कहा--"जी हाँ, इसी सिलसिले में उनसे कुछ निवेदन करना है । वे कबतक आ जावेंगे ?" उन्होंने मुस्कराकर कहा-"हां, तो फरमाइये न ।”
मझे वस्तु-स्थिति को समझते देर नहीं लगी। अपनी झेंप मिटाते हुए मैंने कहा--"क्षमा कीजिए. यह मेरा ही कसूर है कि इसी शहरमें रहते हुए भी मैं आपके दर्शनोंसे वञ्चित रहा मैं ............"
मैं कुछ और कहना चाहता था पर उन्होंने मेरे शोधके 'विषय' के विषय में पूछा। मैंने विषय बतलाया और आवश्यक सामग्री व निर्देशनके लिए निवेदन किया। मैं झिझक रहा था कि अभी तक अपरिचित होनेके कारण मुझे सहयोग मिलेगा या नहीं ? सामग्री प्राप्त करने में बाधाओंको निवारण करने हेत मैंने निवेदन किया--"यदि पुस्तकों आदिके लिए किसी जामिनकी आवश्यकता हो तो मैं श्रद्धेय शास्त्रीजी
आदरणीय विद्याधरजी शास्त्री विद्यावाचस्पति) अथवा श्रद्वेय स्वामी जी ( विद्यामहोदधि श्री नरोत्तमदासजी स्वामी )से लिखवा कर ला सकता हूँ। और मेरे बड़े भाई साहब पं० लक्ष्मीनारायणजी पुरोहित एडवोकेटसे परिचित ही होंगे?"
हाँ-हाँ मैं पण्डित जी से परिचित हूं और हमारे घरू सम्बन्ध है सभी से। पर अपने यहां सिफारिश की आवश्यकता नहीं है । सिफारिश इतनी है कि आप रिसर्च करते हैं ?'
मैं श्रद्धासे नत हो गया और गदगद् होकर उनकी ओर देखने लगा। पर वे तो एक आलमारीको टटोल रहे थे । मैं कुछ कहने ही वाला था कि उन्होंने मेरे समक्ष दो ग्रन्थ लाकर रख दिये और कहने लगे"अभी इन्हें देख लीजिए, फिर यथासम्भव सामग्री जुटाने में जो भी सहयोग अपेक्षित होगा, मिलेगा।"
इतना कहकर एक रजिस्टर में मेरा नाम व पता ( मुझे पछकर ) लिख लिया तथा दोनों ग्रन्थ मेरे खातेमें लिखकर मुझे घर ले जानेके लिए दे दिये।
मैंने झिझकते हुए पूछा--"ये ग्रन्थ कितने दिनों तक रख सकता है?" "आवश्यक सामग्री नोट करके लौटा दीजिए । पस्तकोंको अपनी समझें ।"
"पस्तकोंको अपनी समझेंका भाव मैं समझ गया और नाहटाजीके मनकी वेदनाको भी ताड़ गया। वहाँ पडी हई कुछ पुस्तकोंकी दशा देखकर ज्ञात हुआ कि इनका पोस्ट-मार्टम नहीं तो 'आपरेशन' अवश्य हो गया है । अस्तु ।
नाहटाजीने एक बात और कही। उन्होंने कहा-"आपके भाई साहब से हमारा पुराना परिचय है पर मेरे लिए आपका इतना परिचय काफी है कि आप 'शोधार्थी' हैं।"
इस प्रथम दर्शनसे ही मैं इतना आश्वस्त हुआ कि अपनी सफलताकी मंजिल तक निर्बाध पहुँचनेका विश्वास कर लिया। मैंने एक ग्रन्थ ( विक्रम स्मृति ग्रन्थ )को टटोला जिसमें श्रद्धेय नाहटाजीका एक शोधपूर्ण
१. विक्रमादित्य एवं तत्सम्बन्धी साहित्य ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३३१
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