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ही हो जायें तो राजस्थानी की प्रतिष्ठा अपनी चरम सीमापर पहुँच सकती है और उसे अपना उचित स्थान सहज भावसे प्राप्त हो सकता है ।
श्री नाहटाजीकी अनेक विशेषताएँ हैं उन विशेषताओंका जिस किसीने उचित लाभ लिया वे वास्तवमें धन्य हो गये । श्री नाहटाजी अपने आप में एक संदर्भ पुस्तकालयकी तरह ज्ञान राशिको संजोये हुए हैं। जब भी कभी किसी विषय में पूछ-ताछ करनी हो तो प्रश्न करते हो तुरन्त उत्तर तैयार है । आजसे शताधिक वर्षों पूर्वकी सामग्री कहाँ मिलेगी किस भण्डारमें है - आपको भली भाँति स्मरण है। यही कारण है कि भारत के विभिन्न भागोंसे आपके पास निरन्तर शोध छात्र आते हैं और लाभान्वित होते हैं । राजस्थानी कवयित्रियों पर कार्य करते समय आपने जो सहायता मुझे दी, वह आज भी स्मरण है । अगर आपका उचित मार्गदर्शन न मिला होता तो संभवतः मेरा यह कार्य अपूर्ण ही रह जाता ।
एकके बाद एक निरन्तर आते
गंगा-सा पवित्र, हिमालय सा
ध्येय है- निरन्तर कार्य करते
श्री नाहटाजीके पावन प्रसंगोंको जब भी स्मरण करता हूँ तो वे रहते हैं । वस्तुतः वे एक सहृदय और सच्चे साहित्यकार हैं जिनका हृदय सुदृढ़ और निर्झर सा अमृत वृष्टि करने वाला है। उनका एक ही रहो । चलते रहो। स्वयं काम आपका परिचय देगा। वह घर पर जाकर आपकी भावनाओंको सुनायेगा। नाहटाजीकी ये पावन प्रेरणा आज भी मुझे अनुप्राणित करती है और जब भी मैं उनके पास आता हूँ तो सामग्री छन्दका ग्रन्थोंसे ज्ञान सीखने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्वसे भी बहुत कुछ प्राप्त करता हूँ ।
आपके पास भारत के विभिन्न क्षेत्रोंसे अनेक पत्र प्रतिदिन आते हैं । परन्तु आप किसी भी पत्रका उत्तर दिये बिना नहीं रहते। इसी तरह चाहे कोई छोटा पत्र हो या बड़ा आप उसे लेख अवश्य देते हैं । ग्रन्थोंकी सुन्दर प्रेरणाप्रद, सम्मति देना, आशीर्वचन लिखना भी आपका एक स्वभाव-सा हो गया है। जब मैंने अपने विभिन्न ग्रन्थों पर सम्मतियाँ चाहीं तो आपने बड़ी सहृदयतासे उनपर प्रेरणाप्रद सम्म तियाँ लिखकर प्रोत्साहित किया ।
श्री नाटाजीके वे रंग-बिरंगे चित्र जब भी स्मृति पटल पर तैरते उभरते हैं तो सहज भावसे एक सहृदय साहित्यकार के दर्शन होते हैं जिसे देखकर हृदय गद्गद् होने लगता है और सिर चरणोंमें शुक जाता है। ऐसे वरेण्य पुरुषको मेरा भी नमन ।
श्रद्धय नाहटाजीसे भेंट
डॉ० ब्रजनारायण पुरोहित जून सन् १९५८ की बात है। सुबहके करीब साढ़े आठका समय रहा होगा। मैं श्री अभयजैन ग्रंथालयके कमरे में गया। मैंने चारों ओर दृष्टिपात किया तो पुस्तकों व पत्रोंके अतिरिक्त बहुतसे 'बस्ते' भी रखे हुए नज़र आये । चारों ओर देखने लगा । पूर्णतः शान्त वातावरण में निस्तब्धताको आघात पहुँचानेवाला वहां कोई नहीं था । मैं 'किसी के आनेकी प्रतीक्षा करने लगा और सोचने लगा कि बिना किसी पुस्तकाध्यक्ष के यह ग्रन्थालय खुला कैसे ? परन्तु मेरा कौतूहल कुछ ही क्षणोंमें शान्त हो गया। जब एक-दो पलों के अन्तरसे
३३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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