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लेखकां-कवियां रो जियां आभार मानां, बियां शोध विद्वानां सारू भी आभारी हुवणो जरूरी है । लोकमें प्रसिद्ध है - भींतड़ा पड़ जावे, पण गीतड़ा रैय जावै । ठीक है, गीतड़ा रंय जावे, पण गीतड़ां री पोथ्यां भी पड़ी-पड़ी दोमकां रो भोजन बणण लाग जावै । अर जिका श्रमशील साधक आ पोथ्या रो रिछपाल करें, भूल्यै बिस लिखारां कवियां ने पाछा प्रकाशमें लावें, बे आपारी धणी घणी सरधा रा पात्र है । इण पात्रतामें नाइटेजी रो नांव निश्चित रूप सूं अग्रणी है ।
बीकानेर अर राजस्थान प्रवेश ई नई आखै देस खातर आ गोरबं री बात है के नाटंजी जिसा विद्वान आज आपां रे बिचाळे है अर उणां रो षष्टिपूर्ति माथै च्यारूमेर सू उणां रै अभिनन्दन सारू शुभकामना संदेश आवैं अर अक अभिनन्दन ग्रंथ आपां उणांने भेट करां ।
भगवान सू प्रार्थना है मैं नाहटॅजी ने सर्वथा सुखी राखै ताकि बै साहित्य साधनामें अवार ज्यू ई दत्तचित्त हुयोड़ा रै अर मां राजस्थानी अर आखे देश री सांगोपांग सेवा करता रेंवें ।
स्मृति पटलपर तैरते श्री नाहटाजी
श्री दोनदयाल ओझा
मैं जब भी मेरेपर अनुकंपा रखने और मार्ग दर्शन देनेवाले साहित्यकारोंको स्मरण करता हूँ तो सर्वप्रथम श्री अगरचन्द नाहटाके दर्शन करता हूँ। श्री नाहटाजी को 'साहित्य रत्न' की परीक्षासे पूर्व मैं नहीं जानता था । हाँ उनके उद्धरणोंका प्रयोग अवश्य स्थान-स्थान पर किया करता था । जब मुझे 'राजनीति रत्न' करनेका अवसर मिला और पुस्तकें लेने गुरुवर श्री अक्षयचंद्रजी शर्माके साथ 'अभय जैन ग्रंथालय पहुंचा तो वहाँ श्री अगरचंदजी नाहटा बनियान पहने, पालथी लगाये कुछ किताबोंको देख रहे थे । उनके चतुर्दिक् किताबों-पत्रों और हस्तलिखित ग्रंथोंके ढेर थे । मैं समझ गया कि श्री नाहटाजी यही है । मैंने प्रणाम किया और श्री शर्माजीने मेरा परिचय कराते हुए कहा- ये दीनदयाल ओझा हैं, हमारे भारतीय विद्यामंदिर के छात्र हैं, इन्हें पुस्तकोंकी जरूरत हो तो आप मेरे नामसे दे देना ।
इतना सब कुछ सुन लेनेके उपरान्त श्री नाहटाजीने परीक्षा हो रही है पर उन्होंने मुझे कहाँके हो, कहाँ काम किताबें चाहिए थो नाम पूछ-पूछकर मुझे ला दी और अपने देने को कहा ।
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मेरी ओर ध्यानसे देखा । मुझे लगा आज करते हो आदि प्रश्न पूछे और उठकर जो रजिस्टरमें लिखने और हस्ताक्षर कर
मैंने जब यह कहा कि मैं जैसलमेरका हूँ तो उन्होंने तुरन्त ही कहा कि तुम्हें तो जैसलमेर पर लिखना चाहिए। मैं उन दिनों लेखनकी ओर प्रवृत्त नहीं हुआ था, अतः मैंने कहा- क्या लिखूं, किसपर लिखू ं ? बड़े सहज भावसे उत्तर देते हुए कहा – तुम जैसलमेर के हो और यह कहते हो किस पर लिखूं । वहाँ तो एक-एक पत्थर, एक-एक गीत, एक- एक कथा, एक-एक भवन पर बीसों लेख लिखे जा सकते । तुम लोकगीतों और लोक कथाओंपर लिख लावो । और कुछ न हो सके तो जैसलमेरी बोलीमें ही लिख लाना मैं छपवा दूँगा ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३२७
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