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________________ मैं दूसरे दिन दो रचनाएँ लेकर श्री नाहटाजीके पास पहुँचा । उन्होंने मुझे पढ़कर सुनाने को कहा । जैसे ही मैंने रचनाएँ पढ़कर सुनाई उन्होंने तुरन्त ही कहा-बड़ा अच्छा लिखा है और लिखो मैं छपा दूँगा । कुछ दिनों पश्चात् मेरी वे रचनाएँ 'मरु भारती' (पिलानी ) में छपीं । उन मुद्रित रचनाओंको आज जब भी याद करता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है जैसे श्री नाहटाजी लेखनकी निरन्तर प्रेरणा देते जा रहे हैं कि तुम लिखो । इस घटना के पश्चात् श्री नाहटाजीसे संबंध उत्तरोत्तर गहरे होते रहे और मैं वहाँ बैठकर लिखने, पढ़ने और नोट लेने का कार्य करता रहा । मुझे हस्तलिखित ग्रंथ पढ़ने नहीं आते थे। कई अक्षर बड़े अटपटे लिखे होते थे । श्रीनाहटाजीने इस समस्त बाधाओंसे समय समयपर सहायता देकर पार किया । परिणाम यह हुआ कि मैं अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अन्यान्य ग्रंथागारोंके प्राचीन ग्रंथ पढ़ने ही नहीं लगा अपितु . उन्हें संग्रह भी करने लगा । आज भी कोई प्राचीन हस्तलिखित प्रति पढ़ने बैठता हूँ तो उन दिनोंकी समस्त बातें आँखों आगे आ खड़ी होती हैं । बढ़ते हुए इस संपर्कका एक और सुपरिणाम निकला । वह यह था कि मैंने सार्दूल राजस्थानी इन्स्टीट्यूटकी सदस्यताका आवेदन पत्र दिया था । उन दिनों श्री नाहटाजी इन्स्टीट्यूट के अध्यक्ष थे । उन्होंने एक लेख लिख लानेका कहा। मैंने एक सुन्दर लेख तैयार किया और उसे पढ़कर एक गोष्ठी में सुनाया। इस बीच मेरे कई लेख विभिन्न पत्रोंके द्वारा प्रकाश में आ चुके थे । श्री नाहटाजीने मुझे इन्स्टीट्यूटका सदस्य ही नहीं बनाया अपितु साहित्य परिषद् का भी सदस्य बना दिया । आज भी जब कभी इन्स्टीट्यूट जाता हूँ तो वे दिन स्मरण आए बिना नहीं रहते । नाटाजी सौजन्यकी तो मूर्ति हैं । जब कभी मेरे योग्य कार्य देखा अथवा कोई बाहरका व्यक्ति भी मिलने आ गया और उसे मेरी सहायताको आवश्यकता ज्ञात हुई तो तुरन्त नाहटाजीने बुलवाकर उस व्यक्ति विशेषसे मिलाकर सदा आगे लानेकी कोशिश की । यह मत करो कुछ साहित्य वैसे तो सभी मिलने जुलने वाले होते हैं, परन्तु निरन्तर साहित्य साधनाकी ओर प्रेरित करनेवाले बिरले ही होते हैं । आज भी कई महीनोंमें कुछ नहीं लिखा जाता तो तुरन्त बुलाकर यही कहते हैं-क्यों भाई ! लिखना क्यों बंद कर दिया ? क्या किताबें नहीं या आलस्य में बैठे हैं ? सेवा करो । समय जो जा रहा है, वह लौट कर आनेका नहीं । अभी तो युवक हो । मेहनत करो । जब भी कोई रचना किसी पत्रमें स्थान पाती है तो मुझे उस प्रथम श्रमका स्मरण हो आता है जो श्रीनाहटाजीकी पावन प्रेरणासे प्रारंभ किया था । प्रत्येकपर स्नेह वृष्टि करना तो उनका स्वभाव सा हो गया है: निकटका संपर्क होने पर मैं प्रायः अभय जैन ग्रंथालय जो श्रो नाहटाजीका निजी पुस्तकालय है और जिसमें ४० हजार के करीब हस्तलिखित ग्रन्थ हैं, जाता तो वहां नित नूतन सामग्रीके दर्शन होते । श्रीनाहटाजी सदैव जैसलमेर पर लिखनेके लिए अनुप्राणित करते रहते । फलस्वरूप मैंने जैसलमेर पर एक पुस्तक लिखनेका निर्णय किया : जब मैंने 'जैसल - मेर दिग्दर्शन' लिखना प्रारम्भ हो किया था तो अनेक कठिनाइयाँ आ उपस्थित हुई । परन्तु श्रोनाहटाजीने उन कठिनाइयों को अपने ज्ञानलोक एवं सत्यपरायणता द्वारा दूर किया और पग पग पर मुझे अत्यधिक वात्सल्य भावसे मार्गदर्शन दिया। आज जब भी मैं 'जैसलमेर दिग्दर्शन' को देखता हूँ तो मुझे बे समस्त घटनाएं एक साथ स्मरण हो आती हैं । ३२८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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