SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोध-मनीषी श्री अगरचन्द नाहटा श्री गोविन्द अग्रवाल, लोक-संस्कृति शोध संस्थान, नगर श्री, चूरू श्री अगरचन्दजी नाहटा भारतवर्षके लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् हैं । उनके विषयमें खूब पढ़ा, खूब सुना । लेकिन अति निकटसे दर्शन-लाभका अवसर आजसे कोई ५ वर्ष पूर्व बीकानेर में प्राप्त हुआ । “चूरू मण्डल" के इतिहासके संदर्भ में राजस्थान - अभिलेखागार आदिसे सामग्री जुटाने हेतु मैं बोकानेर गया हुआ था । दिन भरके कामसे निपटकर नाहटाजीके दर्शन करने चला तो अँधेरा हो गया था। उनका मकान जानता न था, गलियाँ अपरिचित थीं और अंधेरा बढ़ रहा था, अतः एक तांगा किराये पर लिया । अगली बार बहुत पुस्तकों और पत्र जाकर देखा तो नाहटाजी अभय जैन ग्रन्थालयमें कार्यरत थे, कुछ अन्य सज्जन भी बैठे थे । नाहटाजी से यद्यपि पहले साक्षात्कार नहीं हुआ था, लेकिन मेरा नाम वे जानते थे, अतः नाम बतलाना मात्र ही परिचय था । उनकी अंतरंग गोष्ठी में मैं भी सम्मिलित हो गया। मैंने अपनी "राजस्थानी लोक कथाएँ” नामक पुस्तकोंके दो भाग उन्हें भेंट किये । उनको देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे इस कार्य में लगे रहने के लिए खूब प्रोत्साहित किया । वहाँसे लौटा तो एक नवीन उत्साह मनमें भरा था । फिर चूरू मण्डलके इतिहासके सिलसिले में कई बार बीकानेर जाना पड़ा। सबेरे ही नाहटाजी से मिलने गया तो देखा कि वे मेरेसे पहले ही ग्रंथालय में मौजूद हैं। पत्रिकाओं आदिके ढेर चारों ओर लगे थे और वे उनमें डूबे हुए थे । मुझे कुछ पुस्तकें देखनी थीं, सहसा ध्यान आया कि पुस्तकोंके इन ढेरोंसे इच्छित पुस्तकें जल्दी नहीं मिल सकेंगी। परन्तु पुस्तकोंके नाम बतलाते ही नाहटाजीने इतनी शीघ्रतासे पुस्तकें निकालकर मेरे सामने रख दीं कि देखकर आश्चर्य हुआ, क्योंकि वैज्ञानिक रीतिसे व्यवस्थित पुस्तकालयोंसे भी इतनी जल्दी वांछित पुस्तकें नहीं मिल पातीं । अगली बार बीकानेर गया तो एक शामको डॉ० मनोहरजी शर्मा मिले। उन्होंने बतलाया कि नाहाजी की धर्मपत्नीजीका स्वर्गवास हो गया है। दूसरे दिन सबेरे मैं ग्रंथालय गया तो वहाँ एक अन्य सज्जन बैठे थे । उन्होंने कहा कि नाहटाजी अभी आनेवाले हैं । कुछ देर बाद नाहटाजी आये, सिरपर शोक-सूचक हरे रंगकी ऊँची पाघ थी, चेहरे पर क्षोभकी हल्की-सी परत । मैने नमस्कार किया और इससे पहले कि मैं कुछ कहूं, उन्होंने हमारे कार्यकी प्रगति आदिके बारे में चर्चा प्रारंभ कर दी । कुछ देरकी बातचीत के बाद वे सदैवकी तरह ही साहित्य - साधनामें लीन हो गये, जैसे कोई विशेष घटना नहीं घटी थी । इसके बाद भी एकाध बार और नाहटाजीके यहाँ जाना हुआ और जब भी गया उन्हें सदैव साधनानिरत ही पाया । नाहटाजी का प्रत्येक क्षण साहित्य-साधना के लिए अर्पित है। हर जिज्ञासु, साधक व शोधके विद्यार्थीके लिए उनका द्वार खुला है । शोधके विद्यार्थी निरंतर उनके पास आते रहते हैं और नाहटाजी उन्हें यथोचित मार्ग-दर्शन देते हैं । नाहटाजीके पास शोध-विषयक प्रचुर सामग्री एकत्रित हैं । यों वे स्वयं चलती-फिरती जीवंत संस्था हैं । वास्तवमें अनेक संस्थाएँ भी उतना काम नहीं कर पातीं. जितना उन्होंने किया है और कर रहे हैं । जैन साहित्यके तो वे विश्वकोश ही हैं। शोधके क्षेत्रमें उन्होंने जितना कार्य किया है, उतने से शोधके अनेक छात्र पी० एच० डी० को उपाधि प्राप्त कर सकते हैं। आशा है, राजस्थान विश्वविद्यालय नाहाजी की साहित्य साधनाका उचित मूल्यांकन कर उन्हें डी० लिट की उपाधि से विभूषित कर उपाधिको सार्थक बनाएगा । ३१८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy