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वर्षों तक चली | राजस्थानके साहित्याकाशमें एक नए नक्षत्र के उदयपर स्वाभाविक था कि उससे परिचित होनेकी जिज्ञासा हो उस समय स्वामीजी तथा पारीकजी प्रकाशमें आ चुके थे और इनकी रचनाएँ साहित्यिक पत्रिकाओंमें निकल चुकी थीं। उ० प्र० से ना० प्र० पत्रिका तथा सम्मेलन पत्रिका उच्चस्तरकी पत्रिकाएँ समझी जाती थीं । उपर्युक्त तीनों पत्रिकाओं में किसी लेखककी रचनाका प्रकाशित होना, उसको लेखकके रूपमें मान्यता मिलना समझा जाता था । बादमें इन पत्रिकाओं तथा अन्यान्य पत्रिकाओंमें भी श्री नाहटाजी के लेख देखने को मिले । जिज्ञासा बढ़ती ही गई ।
सन् १९५४ में स्कूलके कामसे बीकानेर जाना हुआ तो सर्वप्रथम मैं आपसे आपके पुस्तकालय में मिला । तबतक आप काफी ख्याति प्राप्त कर चुके थे। आप अधवैंया कुर्ता पहने हुए हस्तलिखित ग्रंथोंके पन्ने उलट रहे थे और चारों ओर फर्शपर बिछी हुई दरीपर हस्तलिखित ग्रंथोंके ढेर लगे थे । धनी मूछोंवाले गंभीर मुखने मुझे प्रभावित किया । प्रथम साक्षात्में ही मैंने इन्हें मितभाषी और कार्यमें विश्वास करनेवाले के रूपमें देखा । कुछ समय साहित्यचर्चा हुई और में चला आया ।
दूसरी बार गया तो वे वहीं मिले और उसी तरह कार्य संलग्न में भीखजनपर एक लेख लिखना चाहता था। उसके विषय में चर्चा की तो तत्काल ही उन्होंने एक पत्रिका निकाल कर दी, जिसमें भीखजनके बारेमें लिखा हुआ था। इस कवि की अन्यत्र कहीं चर्चा नहीं हुई थी। मुझे आश्चर्य हुआ उनकी स्मृतिपर कि इतनी पत्रिकाओंके ढेर मेंसे वह कामको पत्रिका तुरंत निकालकर दे दी मानों पहलेसे ही वे उसे ढूंढकर तैयार बैठे हों।
इस प्रसंगसे दो बातोंकी मेरे मस्तिष्कपर छाप पड़ी। एक तो किसी भी जिज्ञासु समानधर्मीको तत्काल सक्रिय सहयोग देने की दूसरी उनकी स्मरण-शक्ति की कि हजारों पुस्तकोंके ढेरमें उन्हें याद है कि क्या चीज, किस जगह है ।
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उस समयतक तथा उसके बाद तो उनके पास कितने ही शोष छात्र आए और उन्होंने इनकी वृत्तियोंका भरपूर लाभ उठाया। ये मूर्तिमान संदर्भ हैं। ये उस समय 'राजस्थान भारती' निकालनेवाली संस्था श्रीसार्दूल राजस्थान रिसर्च इंस्टीट्पट, बीकानेरके अध्यक्ष थे और उसके संपादक मंडलमें तो ये इसके प्रथम अंकसे ही थे। ये इस संस्थाके संस्थापक सदस्य भी हैं।
मैं इंस्टीट्यूट गया । वहाँ 'राजस्थान भारती' के संपादक श्रीबद्रीप्रसादजी साकरिया तथा कार्यालय मंत्री श्रीमुरलीधरजी व्याससे मिला । इन दोनों ही वयोवृद्ध सज्जनोंसे परिचय प्राप्त कर बड़ी प्रसन्नता हुई । बादमें यह परिचय स्थायी स्नेहमें परिवर्तित हो गया। मैंने वहाँसे पत्रिकाके पिछले सारे अंक लिए और लौट आया। घर आकर मैंने सभी अंकोंको आद्योपान्त पढ़ा। इस पत्रिकाके भाग ४, अंक २-३ जुलाई-अक्टूबर ५४ के अन्त में श्री नाहटाजीके लेखोंकी सूची तथा संक्षिप्त परिचय देखा। परिचयमें सबसे महान् आश्चर्य इनकी शिक्षा विषयमें पड़कर हुआ, केवल ५वीं कक्षा तक और लेखोंकी संख्या ११६१ । ये लेख प्रांतकी और देशकी सभी मुख्य पत्रिकाओं में फैले हुए है।
आपने लक्षाधिक हस्तलिखित प्रतियोंका अवलोकन किया है तथा श्री अभय जैन ग्रंथालयमें और शंकरदान नाहटा कला भवनमें उस समयतक आप बीस हजार हस्तलिखित ग्रंथों एवं हजारों चित्रोंका संग्रह कर चुके थे। इस कार्यको देखते हुए ऐसा लगता है कि यह एक आदमीके वशकी बात नहीं है परन्तु यह एक ठोस वास्तविकता है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। इनका जीवन नए साहित्यिकों तथा अल्पशिक्षित व्यक्तियोंके लिए आदर्श तथा प्रेरणाप्रद है। इन्होंने अपने जीवनके प्रतिक्षणका सदुपयोग किया है। इसके पीछे इनकी लगन और अध्यवसाय हैं जिसने इनको आज साहित्य जगत् में ख्यातिके शिखरपर पहुँचा दिया है । ३१४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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