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________________ मैं प्रातः, दोपहर, रात्रि को जब भी इनके पास गया हूँ ये पुस्तकालयमें ही मिले हैं और मैंने इन्हें हस्तलिखित या मुद्रित पुस्तकोंके अध्ययनमें व्यस्त ही पाया है । एक बार मैं इनसे सन् ६० में मिलने गया तो इन्होंने मेरे सामने पृथ्वीराज जयंतीकी अध्यक्षता करने और पृथ्वीराज आसन से अभिभाषण तैयार करनेका प्रस्ताव रखा । मुझे ठीक याद है, उस दिन जयन्तीके बीच में केवल दस दिन रहे थे । मैंने कहा – इतने समय में दो भाषण कैसे तैयार होंगे ? मुझे शामको ही इंडलोर लौटना था । इन्होंने आग्रह किया और आसनके लिए विषय भी सुझा दिया । इस स्नेहमय, निश्छल तथा निःस्वार्थ आग्रहको मैं टाल नहीं सका और समयपर मैंने दोनों ही कार्य सम्पन्न किए । यह है इनका प्रेरित करने और मुझ जैसे आलसी आदमी से काम लेनेका ढंग । ये जब बाहर निकलते हैं तो दोलांगकी नोची धोती, कमीज, बन्द गलेका कोट और सरपर ओसवालीकी पगड़ी लगाकर पूरी पोशाकमें निकलते हैं । उस वेषमें देखकर कौन जान सकता है कि यह मूर्तिमान ज्ञान भंडार इस वेषमें परिवेष्टित हैं । ऐसे मनस्वी व्यक्तिका, जिसने अपना सारा जीवन साहित्य सेवामें खपा दिया, जिसका सिद्धान्त वाक्य यही रहा 'मनस्वी कार्यार्थी न च गणयति दुःखं न च सुखम्' और जिसने रत्नदीप बनकर नए साहित्यकारों को आलोक दिखाया, अभिनन्दनकर साहित्य जगत् अपनी कर्तव्यपूर्ति ही करता और स्वयं गौरवान्वित होता है । इस रूप में हम उनके प्रति अपनी श्रद्धा व कृतज्ञता प्रकट करते हैं तथा उनके दीर्घजीवनकी कामना करते हैं, जिससे कि साहित्यालोक वृद्धिंगत होता रहे । विद्याव्यासंग शोधमनीषो डॉ० ओमानन्द रु० सारस्वत राजस्थान की सीमाको पार करके, अखिल भारतीय स्तरपर जिन कतिपय राजस्थानी साहित्यकारोंकी ख्याति पहुँची है, उनमें श्रीअगररचन्द नाहटा एक मूर्धन्य व्यक्ति हैं। टैसीटरी, ग्रियर्सन और टॉड आदि विदेशी विद्वानोंने जिस प्रकार राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं इतिहासको प्रकाश में लानेका ऐतिहासिक कार्य किया है, उसी प्रकार आधुनिक विद्वानोंमें श्रीनाहटाजीका कार्य भी अतिशय श्लाघनीय है । वर्षों पहले, अपने शोध कार्य के सिलसिले में जब मैं राजस्थानके विभिन्न भूभागों में घूमता- घूमता बीकानेर पहुंचा, तो कितने ही व्यक्तियों, संस्थाओं और स्थितियोंके बीच मुझे सर्वाधिक आकर्षित दो व्यक्तियोंने किया -- श्रीअगरचन्द नाहटा और श्रीबदरीप्रसाद साकरिया । अनुसंधित्सुके प्रति आपकी सहानुभूति, सहकारिता एवं विचारावलि एक सच्चे शोधमनीषीकी संज्ञासे अभिभूत है । आनन्द (गुजरात) के समशीतोष्ण वातावरणसे बीकानेरकी भयंकर लू और टांटफाड़ धूपमें जब मैं पहुँचा तो शोधकार्य की गहनताकी अपेक्षा अपने स्वास्थ्यकी गंभीरतापर विचार करना अधिक जरूरी समझ बैठा । लेकिन श्रीनाहटाजीके सान्निध्य में लू और गर्मी की भीषणता भी शोध प्रक्रियाकी प्रेरक ही बनकर रह गई । होटल से तांगेवाला मुझे टेड़ी - घुमावदार सड़कों-गलियोंमेंसे नाहटोंकी गवाड़ में ले आया'नमस्कार ! मैं श्रीनाहटाजी से मिलना चाहता हूँ ।' 'नमस्ते | आइये, विराजिये । मैं हो अगरचन्द हूँ Jain Education International व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३१५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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