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________________ रहते हैं । स्वयं नाहटाजी ही नवप्राप्त साहित्य तथा तत्सम्बन्धी जानकारीको 'रायटर' की भाँति, तत्काल प्रकाशित करते रहते हैं । नाहटाजीका जीवन एक श्रावक तथा साहित्यकारका सात्त्विक जीवन है । उनकी धर्मनिष्ठा उनके साहित्य-निर्माणका सम्बल है । इसीलिये हिन्दी के ख्याति प्राप्त लेखक तथा विद्वान् होते हुए भी वे जैन साहित्य के विशेषज्ञ हैं । जैन साहित्यकी सामग्री, चाहे वह किसी भी भाषा में हो तथा प्रकाशित-अप्रकाशित किसी भी रूप में हो, उन्हें राई-रत्ती ज्ञात । वे जैन साहित्यके साक्षात् सन्दर्भग्रन्थ अथवा गतिशील पुस्तकालय हैं । अब तक देशकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके करीब पाँच हजार लेख प्रकाशित हो चुके हैं । उनकी लिखी अथवा सम्पादित ३० - ३५ पुस्तकें अलग हैं। उनके बहुतसे निबन्ध तो शोध-प्रबन्धोंके आधार बने हैं, जो उनकी प्रखर विद्वत्ता तथा शोध-दृष्टि के सारस्वत स्मारक हैं । वास्तविकता तो यह है कि नाहटाजी देशकी शोधप्रतिभा तथा साहित्यनिष्ठाके प्रतीक बन चुके हैं । महापण्डित राहुल सांकृत्यायन तथा प्रज्ञाके अमर-शिल्पी ऋषितुल्य डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे उद्भट विद्वान् भी उनकी प्रतिभा तथा कर्मठताका सिक्का मानते थे । इतना होते हुए भी नाहटाजी अपनी विद्वत्ताको इस सहजतासे ओढ़ते हैं कि उन्हें आभास भी नहीं होता कि वे वाग्देवी के मानसपुत्र हैं । उनकी मारवाड़ी भूषा, बच्चोंकी-सी मधुर मुस्कान तथा हृदयकी सरलताको देखकर कोई अपरिचित व्यक्ति यह अनुमान भी नहीं कर सकता कि वे देशके प्रकाण्ड साहित्यकार हैं । आजके विज्ञापनके युग में भी उन्हें न प्रचारकी आवश्यकता है, न यश अथवा औपचारिक प्रतिष्ठाकी आकांक्षा । फिर भी जितना सम्मान तथा यश उन्हें मिला है, वह किसी बिरले को ही प्राप्त होता है । किन्तु जहाँ देशकी कुछ संस्थाओंने विभिन्न रूपोंमें, उनकी साहित्यिक सेवाओंके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है, वहाँ राजस्थानके विश्वविद्यालय कुम्भकर्णी नींद में सोये पड़े हैं । वे देश-विदेश के पेशेवर विद्वानोंको सम्मानित करके तो स्वयंको गौरवान्वित समझते हैं, किन्तु नाहटाजी जैसे निस्स्पृह साहित्यकारकी सुध उन्हें अभी नहीं आई है, वैसे नाहटाजी इन विश्वविद्यालययोंकी सभी उपाधियोंसे ऊपर हैं, महान् हैं । इस मूक तपस्वीको औपचारिक उपाधियोंकी आवश्यकता ही क्या ? मैं नाहटाजीके चरणोंमें प्रणामांजलि अर्पित करता हूँ । वीतराग प्रभुसे प्रार्थना है कि वे इस परोपकारी विद्वान्को शतायु करें, जिससे समाजको उनके ज्ञानालोकसे मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे । महामनस्वी श्रीनाहटाजी श्रीलाल मिश्र सर्वप्रथम सन् १९३७ में मैंने बम्बईके मारवाड़ी पुस्तकालय में उ० प्र० की हिदुस्तानी पत्रिकामें श्रीनाहटाजीका लेख देखा। उस समय राजस्थानसे कोई साहित्यिक पत्रिका नहीं निकलती थी । कुछ समय के लिए श्रीहरिभाऊजी उपाध्यायके सम्पादन में एक सुन्दर पत्रिका 'त्यागभूमि' मासिक निकली थी, जो कुछ व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३१३ ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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