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________________ यह था मेरा नाहटाजीसे प्रथम साक्षात्कार । उसके पश्चात् तो मैं उनके चरणोंमें महीनों बैठकर कार्य कर चुका हूँ और उस अवधिमें उन्हें अति निकटसे देखकर कितने क्या अनुभव किये हैं, कितनी क्या प्रेरणा प्राप्त की है-उन सबका लेखा-जोखा एक लम्बी कहानी बन जायेगा। अतः मैं विस्तार भयसे यहीं अपनी बातको समाप्त कर रहा हूँ । न तस्य प्रतिमास्ति यस्य नाम महद यशः श्री सत्यव्रत 'तृषित' श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटासे मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं है। बात सन् १९६२ की है। तब मैं डी. ए. वी. कॉलेज, अमृतसर में प्राध्यापक था। मैंने सरस्वतीमें 'पंजाब और संस्कृत साहित्य' जैसे गहन विषय पर एक लेख लिखनेकी चपलता की । पाँच हजार वर्षों के विशाल अन्तरालमें निर्मित साहित्यकी विपुल राशिके साथ न्याय करना मेरे लिये कहाँ सम्भव था ? नाहटाजीने तुरन्त निबन्धकी कमियोंका प्रतिवाद किया । यही मेरा नाहटाजीसे प्रथम परिचय था । सन् १९६४ से राजस्थान मेरा कर्मक्षेत्र बना। इसके पश्चात् तो मुझे नाहटाजीको बहुत निकटसे देखने तथा समझने और अनेक बार उनका आतिथ्य ग्रहण करनेका सौभाग्य मिला। गत दो-तीन वर्षसे तो 'अभय जैन ग्रन्थालय' मेरा घर ही बना हुआ है। नाहटाजीके व्यक्तित्वमें भारतीय संस्कृतिको गौरवशाली परम्परा साकार हो उठी है। वे सौजन्य तथा औदार्यकी साक्षात् प्रतिमा हैं। विनम्रता उनकी स्पर्धनीय थाती है। धनाढ्य व्यापारी कुलमें जन्म लेकर एक यशस्वी साहित्यकार बन जाना स्वयंमें एक विस्मयकारी घटना है। नाहटाजी इसे अपने पूर्वजन्मोंके संस्कारोंका सुफल कहते हैं। अवश्यही नियतिने उन्हें व्यापारके जालमें फाँसनेकी दुश्चेष्टा की थी, किन्तु प्रतिभा को बन्दी बनाना किसी भी सत्ताके बूतेकी बात नही है। उनकी साहित्यिक प्रतिभाके विकासमें उनके दिवंगत पिताजीका अमूल्य सहयोग रहा है, जिन्होंने अपनी तत्त्व भेदी दृष्टिसे उनकी प्रतिभाको आंक कर उन्हें प्रारम्भमें ही व्यापारके भारसे मुक्त कर दिया । नाहटाजीने अपने पिताजीके विश्वास और अभिलाषाके अंकुरको प्रतिभाके पीयूषसे सींच कर अश्वत्थ का रूप दे दिया है। श्रीयुत नाहटाजी साहित्यके सजग प्रहरी है। साहित्यका जितना उद्धार उन्होंने अकेले किया है, वह अनेक संस्थाओंके सामूहिक प्रयत्नोंसे भी सम्भव नहीं था। देशका शायद ही कोई ऐसा भण्डार हो, जिसका मन्थन नाहटाजीने न किया हो। अज्ञात तथा दुर्लभ ग्रन्थोंका संग्रह करनेमें वे सदैव तत्पर हैं। उनकी इस संशोधक वृत्तिका मूर्तरूप उनका 'अभय जैन ग्रन्थालय' है, जिसमें संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदिके लगभग एक लाख ग्रन्थ संगृहीत हैं। इनमें आधी तो हस्त प्रतियाँ हैं। नाहटाजीके संग्रहमें ऐसे अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं, जिनकी पाण्डुलिपियाँ अन्यत्र कहीं भी प्राप्य नहीं है। अपनी उदारताके कारण उन्होंने निजी ग्रन्थालयको सार्वजनिक-सा रूप दे दिया है। कोई भी शोधक, किसी भी समय वहाँ जाकर संकलित सामग्रीका उपयोग कर सकता है। शायदही हिन्दीका कोई ऐसा शोधछात्र अथवा विद्वान् हो, जिसने उनके पुस्तकालयका उपयोग न किया हो। वस्तुतः, 'अभय जैन ग्रन्थालय' अब एक प्रख्यात शोधसंस्थान बन चुका है, जहाँ सदैव, देशके विभिन्न भागोंसे आए हए शोध-विद्वान कार्यरत ३१२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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