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________________ सी मुनीमी टेबल रखी हुई थी। चारों ओर पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं एवं बिखरे हुए कागजोंका अम्बार और उनके मध्य नाहटाजी बिल्कुल सादो वेशभूषामें, अपने पारम्परिक लिवासमें बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी पगड़ी एक ओर रख छोड़ी थी और गर्मीके दिन होनेके कारण अपना कुर्ता भी उतार रखा था। पास ही ५-४ व्यक्ति बैठे हुए थे। एक तो कोई शोध-छात्र थे, जो कि अपने नोट्स लेने में व्यस्त श्रे, दूसरी ओर बैठे हुए व्यक्तिको नाहटाजी अपने नाम आये हुए पत्रोंके उत्तर लिखवा रहे थे। तीसरे सज्जन कतिपय प्राचीन वस्तुएं विक्रयार्थ लेकर आये हुए थे और चौथे सज्जन पठनार्थ कोई धार्मिक पुस्तक लेने आये थे। उन सबसे घिरे नाहटाजी शान्त चित्त, स्थिर मुद्रामें अपने कार्यमें संलग्न मैंने नमस्कार किया और उन्होंने मेरा परिचय जानकर पास-ही बैठनेको कहा । मैं बैठकर अपने कार्यके बारेमें कुछ कहनेको हआ कि उससे पूर्व ही वे शोधार्थी महोदय किसी हस्तलिखित ग्रंथके बारेमें पछने लगे। प्रत्यत्तरमें नाहटाजीने क्षण भरके लिए सोचा और बैठे-बैठे ही सामने पट्टरियोंपर लदे लाल बस्तीकी ओर इशारा करते हुए उन्हें बताया कि वहाँसे अमुक नम्बरका बस्ता उतार लाओ और उसमें अमुक नम्बरकी प्रतिका अमक पृष्ठ निकाल कर देखो। पांच मिनट बाद ही जब मैंने उन सज्जनको सही सन्दर्भको पाकर उसकी नकल उतारते हुए देखा तो मैं स्तम्भित हए बिना नहीं रहा। भला जिनके वैयन्तिक संग्रहमें ३५ हजारके आस-पास हस्तलिखित ग्रंथ (या उनकी प्रतियाँ) सुरक्षित हों, वह बिना किसी कटलॉग और पुस्तकाध्यक्षकी सहायतासे इस फूर्तिसे अपेक्षित पुस्तक निकालकर माँगनेवालेके हाथों में थमा दे, इससे अधिक तीव्र स्मरण शक्तिका परिचय और क्या हो सकता है ? हस्तलिखित प्रति मांगनेवाले सज्जनको उचित निर्देश देकर उन्होंने तत्काल पत्र-लेखकको लिखवाना (डिक्टेशन ) शुरू कर दिया। अभी वे कठिनाईसे दो पंक्ति भी नहीं बोल पाये कि पुरानी वस्तुओंका वह विक्रेता बोल उठा, 'क्यों सेठ साहब, माल जचा? देखिये क्या कलात्मक वस्तु है ! सा'ब, निश्चित रूपसे ५०० वर्ष पुराना है । मैंने यहाँके एक अति प्रसिद्ध और प्राचीन घराने से प्राप्त किया है। उसकी बातें सुनकर नाहटाजी क्षणभरके लिए हंसे। यह वही हँसी थी, जो किसी अनुभवी बुजुर्गके नौसिखियेसे उपदेशात्मक बातें सुनकर बरबस होठोंपर उभर आती है। मुझे निर्देश देनेके साथ ही उन्होंने एक अन्य पगड़ीधारी सज्जनसे पूछा, "आपको शान्तिनाथ चरित्र चाहिए? तो देखिये इसके बारे में ऐसा है कि अभी हिन्दी की पुस्तकें तो मेरे पास हैं नहीं। आप चाहें तो गुजरातीको पुस्तक अवश्य ही, मैं आपको दे सकता हूँ।' वे सज्जन तपाकसे बोल उठे-'नाहटाजी गजराती तो हं जाण कोनी ।' उनकी बात पूरी होनेसे पूर्व ही नाहटाजींका उत्तर तैयार था। उन्होंने कहा, 'जानते नहीं तो क्या है ? सीखिये ! आप योंही पाटेपर बैठे दिनभर गप्प-शप्प लगाते रहते हैं, ताश खेलते रहते हैं; अब कुछ समय तो ज्ञानार्जनके लिए भी देना चाहिए। क्या है आप तीन दिनोंमें गुजराती सीख जायेंगे। मारवाड़ीके लिए गजराती सीखना क्या कठिन बात है ?' और बिना कोई दूसरी बात सुने एक पुस्तक निकालकर उन सज्जनके हाथों थमा दी। तभी पोस्टमैन चिट्ठियों एवं पत्र-पत्रिकाओं आदिका एक बड़ा पुलिन्दा नाहटाजीके हाथोंमें थमा गया (जो कि उनकी दैनन्दिन डाक थी)। दूसरे ही क्षण वे उस डाकको देखनेमें व्यस्त हो गये साथ-ही-साथ पत्र लेखकको बिना एक बार भी यह पूछे कि इससे पूर्व मैंने क्या लिखवाया था, पत्र भी लिखवाते रहे । अब मैं भी एक कागज लेकर पुस्तकोंकी सूची बनाने में संलग्न हो गया। व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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