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________________ बिना, सामान्यतः पूर्ण नहीं हो सकता । विपुल हस्तलिखित ग्रन्थ-सम्पदाके संग्राहक और अध्येता होनेके नाते सम्बन्धित क्षेत्रमें आपकी जानकारी विश्वसनीय मानी जाती है । श्रीमान् नाहटाजीसे मैं १९४० के लगभग परिचित हो चुका था । राजस्थान माहित्य सम्मेलनकी उदयपुरमें स्थापनाके साथ ही 'राजस्थान साहित्य' नामक मासिक पत्रका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो इसमें धारावाहिक रूपसे संगीत, अलंकार, छन्द, रत्नपरीक्षादि विभिन्न विषयोंपर लिखित हस्तलिखित ग्रन्थोंके सम्बन्धमें श्री नाहटाजीके अध्ययन और अनुसन्धानपरक लेख प्रकाशित होने लगे। एक निबन्धके प्रकाशनके साथ ही कई नये निबन्ध अग्रिम प्राप्त होते जाते । कालान्तरमें प्रचारिणी पत्रिका, हिन्दुस्तानी, शोध-पत्रिका आदि देशकी प्रसिद्ध पत्रिकाओंके साथ ही प्रान्तके अन्य पत्र भी आपकी उदारताके पात्र रहने लगे। सभी चमत्कृत-से थे कि बीकानेरका एक सेठ अपने उद्योग-व्यवसायको गौण मानता हआ किस प्रकार साहित्य में इतनी रुचि प्रकट कर रहा है ? श्रीमान् नाहटाजीसे साक्षात्कारका अवसर १९४५ में प्राप्त हुआ। यह घटना इस प्रकार है । प्राचीन साहित्य शोध संस्थानके संचालकके नाते राजस्थानमें हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजका राजस्थान व्यापी कार्यक्रम प्रारम्भ किया तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सक्रिय सहयोग श्रीमान् नाहटाजीसे प्राप्त हुआ। बीकानेरक्षेत्रके हस्तलिखित ग्रन्थोंका विवरणात्मक सूचीपत्र बनाने का कार्य श्री नाहटाजीने स्वीकार किया। कार्य निश्चित समयमें यथाविधि पूरा हो जावे, तदर्थ सहयोगके लिये मेरे बीकानेर पहुँचनेका निश्चय हुआ। महाकवि 'सूर्यमल्ल आसन' से श्रीमान् पं० नरोत्तदासजी स्वामीके राजस्थानी भाषा-साहित्य विषयक तीन सूविस्तत व्याख्यानोंके आयोजन-संयोजनके उपरान्त मैं भी बीकानेरके लिये रेलमें बैठ गया था। वह स्वाधीनता-पूर्वका समय था और मैं सम्पूर्ण खादी पहनता था । गुप्तचर विभाग वालोंने मुझे कांग्रेस या प्रजामण्डलका व्यक्ति माना । तब भारतसे अंग्रेजोंका जाना और भारतीय स्वाधीनता लगभग निश्चित समझे जाने लगे थे एवं खादी-धारी सम्मानकी दृष्टिसे देखे जाते थे । बीकानेर राज्यकी सीमामें पहुँचते ही स्टेशनों पर मझसे ससम्मान किन्तु अनेक प्रकारकी पूछताछ होने लगी। किन्तु बीकानेर रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही श्रीमान् भंवरलालजी नाहटा मुझे लेने पहुँच गये। श्रीमान् स्वामीजी उदयपुरसे एक दिन पूर्व ही पहुँचे थे और मेरी बीकानेर-यात्राकी सूचना उन्होंने दे दी थी। गप्तचर विभाग वाले श्री भंवरलालजीसे बातचीत करते ही निश्चिन्त हो गये। मुझे स्टेशनसे सीधा ही श्रीमान् भवरलालजी निवासस्थान पर ले गये। तब अभय जैन-ग्रन्थालयका अलग भवन नहीं था। श्री नाहटाजी अपनी व्यावसायिक गद्दी पर ही साहित्य-साधनामें संलग्न मिले । गद्दी के एक ओर कक्षमें हस्तलिखित ग्रन्थोंका भण्डार था । आवश्यकतानुसार सूची-रजिस्टरमें देखकर वे ग्रन्थ निकालते रहते । पहुंचा तब भी नाहटाजी एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थका विवरण लिख रहे थे । मैं भी इसी कार्य में लग गया। दो-तीन दिनोंमें ही अभय जैन ग्रन्थालयके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंके विवरण हमने लिख लिये। फिर दोनों ही अनूप संस्कृत पुस्तकालयमें पहुँचे। तब यह पुस्तकालय गढ़में था। वहाँ जाने हेतु सर पर पगड़ी बांधना अनिवार्य था। मैंने पहले ही श्रीमान् नाहटाजीसे पगड़ी लेकर अपने थैलेमें बाँध ली थी। अनूप संस्कृत पुस्तकालयका कार्य पूरा कर बीकानेरके ग्रन्थ भण्डारोंमेंसे विवरण लिये गये। थोड़े ही समयमें एक भागके स्थान पर दो भाग तैयार हो गये । वहीं विवरणों का विषय विभाजन किया गया । इस विषयमें श्रीमान् नाहटाजीने लिखा है, "मैं अपना कार्य शीघ्रतासे सम्पन्न कर सकूँ इसके लिये सहायतार्थ श्री पुरुषोत्तमजी मेनारिया साहित्यरत्न भी कुछ समय बाद बीकानेर आ गये। बहुतसे ग्रन्थोंके नोट्स मैंने पहले ही ले रक्खे थे। उनके आनेसे यह कार्य पूरे वेगसे चलाया गया और दस व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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