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राजस्थान जैन संस्कृति परिषद्की १३-१४ और १५ सितम्बर १९७१ की कार्यकारिणी तथा विद्वद्मंडलकी विशेष बैठक आपकी अध्यक्षतामें सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई। जैन संस्कृति और राजस्थानी ग्रंथकी रूप-रेखा तैयार करनेमें, आपसे बड़ी सहायता मिली। इस अवसरपर सर्वानुमतिसे आप अध्यक्ष निर्वाचित हुए । हमें आशा है कि आपकी अध्यक्षतामें, जैन संस्कृतिके विकासमें राजस्थानका योगदानपर विशाल और विस्तृत ग्रंथ संपादन करने में, आपसे पूर्ण सहायता, सहयोग और सफलता मिलेगी।
एक प्रेरक व्यक्तित्व
श्री नृसिंह राजपुरोहित, खांडप मैंने जीवनमें सर्वप्रथम श्री अगरचन्दजी नाहटाका नाम कब सुना, कुछ याद नहीं। आज जीवनके ढुहेपर खड़े होकर पृष्ठभूमिकी ओर दृष्टिपात करता हूँ तो अनेक धुधले चित्र दृष्टिगत होते हैं, अनेक बिसरे प्रसंग स्मरण हो आते हैं।
- मैं पढ़ने हेतु गाँव छोड़कर बाहर रहता था। छुट्टी-छपाटीमें जब कभी गाँव लौटता तो 'जीसा' को सुनाने हेतु कुछ मसाला साथ लेकर अवश्य आता। एक बार कल्याण मासिकका कोई अंक हाथ लग गया । उसे उन्हें पूरा पढ़कर सुनाया। उन्हें खूब पसन्द आया। उसी अंकमें एक लेख था, जिसका नाम आज याद नहीं, परंतु इतना बखूबी याद है कि उसके लेखक श्री अगरचन्दजी नाहटा थे। श्री नाहटाजीका एक लेखकके रूपमें मेरा यह प्रथम परिचय था।
बादमें बड़े होनेपर साहित्य-जगत्से परिचित हुआ तो मैं लेखक नाहटाजीसे अधिकाधिक प्रभावित होता गया। मुझे इस बातका गर्व था कि वे राजस्थानके निवासी हैं।
सन पचास-इक्यावनके करीब मैंने राजस्थानी भाषामें कहानियां लिखनी शुरू की। आगे चलकर संकलन निकालनेकी इच्छा हुई। प्रथम संकलनका नामकरण 'रातवासौ' किया गया। संकलन हेतु कुछ विद्वानोंकी सम्मतियां मंगवानेकी आवश्यकता महसूस हुई । मुझे सर्वप्रथम श्री नाहटाजीका स्मरण हो आया। मुखपृष्ठ छपने के पूर्व संकलन उनको भेजा गया और सर्वप्रथम आपहीका आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ।
इसके पश्चात् तो पत्रव्यवहार द्वारा संपर्क स्थायी-सा बन गया । परन्तु आपके दर्शनका अवसर प्राप्त नहीं हुआ। काफी समय निकल गया और मैं मन ही मन चाहने लगा कि कभी बीकानेर चलकर आपसे मिलना चाहिए। लेकिन कुछ काम काजके झंझटोंसे और कुछ गांव छोड़ कर बाहर जानेकी कम आदतके कारण उक्त प्रसंग टलता ही गया।
आखिर एक बार किसी कार्यवश बीकानेर जाना हुआ । रेलवेस्टेशनके पास ही किसी होटलमें ठहरा था। दो एक दिन अन्य झंझटोंमें फंसा रहा परन्तु मनमें श्रीनाहटाजीसे मिलनेकी इच्छा बराबर बनी रही। तीसरे दिन पूछता-पाछता नाहटोंके गवाड़में जा पहुँचा। एक सज्जन मुझे ठेठ आपके पुस्तकालयके द्वार तक पहुँचाने आए । मैं चुपचाप सीढ़ियोंपर चढ़ता हुआ ऊपर जा पहुँचा । सामने जो दृश्य दिखाई दिया वह बड़ा प्रेरणादायी था। फर्शसे लगाकर छत तक कमरा व्यवस्थित रूपसे पुस्तकोंसे भरा पड़ा था। फर्शपर भी पुस्तकोंका अम्बार सा लगा था और उनके बीचमें एक आदमी बैठा था-निस्संग, निःशब्द, दीन दुनियासे
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३०७
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