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उनका हमेशा यही जवाब रहा, "पहली बात तो यह कि जो वस्तु या ग्रन्थ जितने कम दाममें मिल जायेगा, उसकी बचतसे दूसरा खरीदा जा सकता है और कम पैसोंमें अधिक वस्तुओंकी सुरक्षा हो सकती है। दूसरी बात यह कि वस्तुओंको वेचनेवाले भी जानते हैं कि मोलभाव करता है, अतः वे उनकी कीमत बढ़ाकर ही बताते हैं । उतनेमें कैसे खरीद लिया जाय ?" यहाँपर मैं उनकी व्यापारिक कुशलताका परिचय पाता
अन्तमें एक बात और कहना चाहूँगा । श्री नाहटाजीने अनेकोंको शोध-कार्य में प्रेरित किया है। अब उनके कार्योंपर भी शोधकार्य आवश्यक हो गया है। मैंने उन्हें प्रतिदिन सुबह नयी-नयी पुस्तकोंका स्वाध्याय करते देखा है । पुस्तक पढ़ने के बाद वे उसकी समीक्षा पुस्तकके अन्तिम कोरे पष्ठपर लिख दिया करते हैं। ऐसी हजारों पुस्तकें प्राप्त की जा सकती हैं। शायद ही उनकी समीक्षा प्रकाशमें आई हो। यदि सबपर विधिवत् अध्ययन किया जाय तो अनेक ग्रन्थोंकी भूलें परिमार्जित हो सकती हैं। साथ ही श्री नाहटाजीका समीक्षक व्यक्तित्व भी उभरकर सामने आयेगा। आदरणीय नाहटाजी आज भी जिस लगन और परिश्रमसे स्वाध्यायरत हैं, उससे भारत भारतीकी समृद्धि सुनिश्चित है, साहित्य और कलाके ऐसे एकनिष्ठ उपासकको मेरे अनन्त प्रणाम।
व्यक्तित्व एवं संस्मरण
श्री जोधसिंह मेहता श्री अगरचन्दजी नाहटासे प्रथम बार आजसे लगभग २५ वर्ष पूर्व, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुरमें मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था । तदनन्तर फिर एक बार उदयपुर में ही व्यक्तिगत भेंट हुई। आपके लेख कतिपय पत्र-पत्रिकाओंमें पढ़नेका भी मुझे अवसर मिला। आपको सादे मारवाड़ी वेशमें परिभूषित देख कर, किसीको यह भान नहीं हो सकता कि नाहटाजीके व्यक्तित्वमें, सार्वभौम विद्वत्ता, साहित्यिक रुचि और शोधप्रियता छिपी हुई है। आपके गहन अध्ययनका प्रकाश, विविध विषयोंपर आपके खोज-पूर्ण व्याख्यानों लेखों और पुस्तकोंसे प्रत्यक्ष सामने आता है। आपके पास जैन साहित्यकी प्राचीन और अर्वाचीनसामग्री भी प्रचुर मात्रामें संग्रहीत है और इस विषयपर आपका ज्ञान भी विस्तृत और विद्वत्तापूर्ण है। कई शोध विद्यार्थी, मार्गदर्शनके लिये आपके पास आते रहते हैं । एवं कई विषयोंपर शोध सामग्री पाकर अचम्भित हो जाते हैं। व्यक्तिगत पुस्तकालय जो आपका है, वह राजस्थानमें ही नहीं, शायद भारतमें भी सबसे बड़ा है।
गत ३-४ माह पूर्व, जबकि उदयपुरमें, भगवान महावीरके २५००वें निर्वाण-कल्याणक महोत्सवके लिये, राजस्थान जैन संस्कृति परिषद की स्थापना हई, तबसे मैं आपके नजदीक सम्पर्क में आया तो मुझे आश्चर्य हुआ कि एक मामूली पढ़े लिखे व्यक्तिका साहित्यिक क्षेत्रमें इतना अपूर्व विकास कैसे हुआ। इसका उत्तर आपसे ही मिला कि अभ्यास और परिश्रमसे ही इसमें सफलता हुई है। आपके बौद्धिक विकासको देखकर, प्रसिद्ध कहावत "करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान" चरितार्थ होती है। यही एक मात्र कारण है कि आपने साहित्यके और सांस्कृतिक क्षेत्रमें, राजस्थानमें ही नहीं अपितु भारतमें प्रमुख स्थान प्राप्त किया है।
३०६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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