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साहित्य और कलाके सच्चे उपासक
श्री प्रेम सुमन आदरणीय श्री अगरचन्दजी नाहटाके अन्तः एवं बाह्य दोनों व्यक्तित्वोंको मुझे निकटसे जाननेका अवसर मिला है और हर व्यक्ति, जो उनके सानिध्य में थोड़ा भी रहा हो, उनके इन व्यक्तित्वोंसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। किसी भी साहित्यकार व शोधवेत्ताके दुहरे व्यक्तित्व की टोह पाना बड़ा कठिन है, विशेषकर तब, जब वह न किसी पद पर कार्य कर रहा हो और न ही उसके अधीन कार्य करनेकी मजबूरी हो । नाहटाजी ऐसे ही असम्पृक्त व्यक्ति हैं, विभिन्न पदोंसे और अनेक मातहतों से। शायद यही कारण है कि उन्हें जिन पदोंपर भी खींचा गया, उनके आदर्शोके अनुसार वहाँ कार्य नहीं हो सका। नाहटाजी पुनः अपनी साहित्य साधनामें लीन हो गये। ऐसी कई संस्थाओं और साहित्य सृजनके अथाह सागरमें मैंने उन्हें डुबकियाँ लगाते देखा है। मेरी नजरमें ऐसी हिम्मत और जीवटके वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने सब कुछ झेलते हुए भी अध्ययन-अनुसन्धानके कार्यको नहीं छोड़ा। स्वयं किया तथा अपने सम्पर्कमें आनेवाले प्रत्येक जिज्ञासुसे भी कराया।
२-३ सितम्बर '६७ तक मैं केवल शोध सम्राट् एवं प्रसिद्ध साहित्यकार अगरचन्द नाहटाको ही जानता था। बीकानेर जाकर जब उनके दरवाजे पर खड़ा हआ तो एक महाश्रेष्ठिके दर्शन हुए। सायंकाल
तकालय में पहुँचा तो श्रद्धेय स्व. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवालका अध्ययन कक्ष स्मरण हो आया । दो दिन बाद जब जैन साहित्य व संस्कृतिके विभिन्न पक्षोंपर विचार-विमर्श हुआ तो प्रतीत हुआ कि विश्वकोश भी सजीव होते हैं। कुछ निजी कार्यों में उनके सहयोग और तत्परताको देखकर सहधर्मी और सहकर्मीके प्रति सम्यक्त्वका वात्सल्य गुण साकार होता प्रतीत हआ। धार्मिक-आयोजनोंमें उनकी सक्रियता और पुस्तकालयमें १८ घन्टे अध्ययनशीलताके संयोगपर विचार करनेसे लगा कि जीवन और धर्म दो अलग बातें नहीं हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर एक आदर्श साहित्यसेवी एवं धर्मपरायणके रूपमें श्री नाहटाजी मेरे प्रथम परिचयमें अवतरित हए । जैन समाजका गौरव निश्चित रूपसे उनके इस व्यक्तित्वसे बढ़ा है।
श्री नाहटाजीके पाण्डित्यने एक बहुप्रचलित भ्रमको तोड़ा है। आधुनिक शिक्षा और ज्ञानके संबंधमें अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं। यदि नाहटाजी उच्च शिक्षा प्राप्त करते तो आज अनेक विषयोंकी सूचनाएँ उनके पास होती, ज्ञान नहीं, जो अनवरत अभ्यास और स्वाध्यायसे उन्होंने अजित किया है। मैं शोध-सम्बन्धी ज्ञानकी बात नहीं कर रहा अपितु जैन तत्त्वज्ञानकी ओर मेरा संकेत है, जिसको नाहटाजीने अपने चरित्रमें भी उतारा है। सादगी एवं अल्पव्ययता उनके जीवनमें व्याप्त है।
व्यक्ति परिग्रही एवं अपरिग्रही दोनों एक साथ कैसे हो सकता है ? यह नाहटाजीको देखकर जाना जा सकता है। वे अपरिग्रही हैं, भोग-विलासकी सामग्रियोंके प्रति तथा आधुनिक तड़क-भड़कके प्रति, पदसम्मानके प्रति । किन्तु वे परिग्रही हैं, हस्तलिखित ग्रन्थोंके, अच्छे साहित्यके एवं कलात्मक प्राचीन वस्तुओं के । अभय जैनग्रन्थालय एवं कला भवन इसका परिणाम है। प्राचीन संस्कृतिके इन वाहनोंकी सुरक्षाके प्रति श्री नाहटाजी कितने प्रयत्नशील रहते हैं, यह इसीसे जाना जा सकता है कि वे अपनी सांसारिक सम्पदाकी देखभाल करने वर्ष में दो माह आसाम जाते हैं, और शेष दस माह ग्रन्थालयकी सुरक्षा और समृद्धि में व्यतीत करते हैं ।
मैंने नाहटाजीको कलात्मक वस्तुओंका मोलभाव करते हुए भी देखा है और साहित्यको खरीदते हुए भी । जब भी मैंने उनसे कहा, 'वस्तुएँ कीमती है, महत्त्वपूर्ण हैं, फिर क्यों आप इसका मोलभाव करते हैं ?'
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३०५
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