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________________ नाहटाजीको भाषामें एक ओज है, राजस्थानी सिंहकी गरज है, पर्याप्त गंभीरता है और अनुभूति तथा अभिव्यक्तिका अनूठा समन्वय है । . इसके पूर्व मैं सोचता था कि नाहटाजी कोई बहुत ही शुष्क और नीरस व्यक्ति होंगे क्योंकि उनके विविध लेखों और गंभीर तथा कठिन साहित्य के विवेचन में डूबे रहने से कोई भी व्यक्ति यह कल्पना कर सकता था । पर कल्पना और यथार्थ सत्यका अनावरण साकार दर्शन पर ही हुआ । धारणा निर्मूल सिद्ध हुई । मैं उनके पास अध्ययनमें रत हो गया। रोज-रोज उनके जीवन के मूलतत्त्वों और उनकी साधना के रहस्यों को समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उनकी दिनचर्या देखकर मैं हतप्रभ हो गया। सुबह ५ से ६ भजन, ६ से ९ तक लेखन, ९ से ११ तक भजन और १ से ५ तक मनन, परिशीलन, निर्देशन और आये हुए पत्रों का प्रत्युत्तर देना । फिर ६ से १० तक प्रतियोंका वही अध्ययन | मैंने पूछा, नाहटाजी आपका कितने शुष्क और गंभीर विषयोंमें मन लगता है । क्या यौवनमें ही आपकी यही दिन थी ? स्फुलिंगके थोड़ा-सा छेड़ने की ही आवश्यकता थी । अनुभवोंका गंभीर मेघ बरस पड़ा । " जवानी में मैं भी बहुत ही गंभीर था", वे बोलते गये, "लोग कहते थे मैं बूढ़ोंकी सी बातें किया करता हूँ, नाच-रंग, सिनेमा, खेल-कूद कुछ भी पसंद नहीं आता था । सिर्फ गंभीर अध्ययनमें ही मेरी रुचि थी ।" "आजकल के कॉलेज के विद्यार्थियोंकी भाँति अनेक भाषाओंका ज्ञान तो मुझे नहीं है । क्रमबद्ध अध्ययन भी मैं नहीं कर सका। अपने शोध और पुरातत्त्व जन्य दृष्टिकोणको ही तल्लीनतासे पोषित करता रहा । निरंतर अध्ययन और एकांत साधना ही मुझे प्रिय थी । किसीसे अधिक बोलना, अकारण विवाद करना, मेरी रुचिसे परेकी वस्तु थी। मैं विद्वान् नहीं हूँ पर अभ्यासी हूँ, राहोंका अन्वेषी हूँ ।". वे उठ गये. " करत-करत अभ्यासके जड़मति होत सुजान" ....कहते-कहते मैंने पूछा कार्यभार आप पर बढ़ता नहीं ? उठते-उडते उन्होंने कहा, "बढ़े क्यों ? आलस्यसे मेरी बिल्कुल मित्रता नहीं । स्वालंबन और " काल करे सो आज कर" ही मेरे जीवन के सूत्र हैं ।" विशाल अध्ययनका यह समुद्र इसी तरह मरुभूमिमें हिलोरें ले रहा है । ४५ वर्षकी वयमें भी शरीर स्वस्थ है और मन तो ज्ञानके ज्योतिकणोंकी इन्द्रधनुषी रेखाओं में गुंथा हुआ है । किसी भी प्रकाश-किरणके लिए व्याकुल जिज्ञासुको यहाँसे निराश नहीं लौटना पड़ेगा । पत्रोंका यथा समय प्रत्युत्तर देना, यह साधक अपना कर्त्तव्य समझा है जबकि हिन्दी के दो प्रतिशत विद्वानों में भी यह बात नहीं है । नाहटाजीको तो यह एक क्रम-सा बन गया है । सच तो यह है कि विद्वत्ता सच्चे और आडंबर शून्य जीवनमें ही पलती है । और नाहटाजी इसके साकार प्रतिरूप हैं । अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाओंका यह साधक एक प्रत्यक्ष कोष है । इन भाषाओंकी शोध में यह तपस्वी डूब - डूबकर खेला है और खेल-खेलकर डूबा है । एक सम्मेलनमें जाते हुए मैंने पूछा - " नाहटाजी, आपकी शिक्षा कहाँ तक हुई ?" सिर्फ ५वीं कक्षा तक वे तीव्र स्वर में बोले' .....मुझे विश्वास नहीं हुआ, पर यथार्थ यही है | मैंने सोचा, साधक के लिये अव्यावहारिक शिक्षा व कृत्रिम डिग्रियोंकी क्या आवश्यकता है । तुलसीदास कहाँ पढ़े थे ? मीराने कौनसे विद्यालय में शिक्षा पाई थी ? और अपूर्व साधक प्रसाद एवं विद्वान् शुक्लजीने कितनी डिग्रियाँ ली हैं ? व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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