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अपनी अध्ययन-प्रेरणाके बारेमें बतलाते हुए उन्होंने कहा, "जैनमुनि श्री कृपाचन्द्र सूरि हो मेरी प्रेरणाके स्रोत रहे हैं....."। और अब तो मेरा जीवन बहुत कुछ बंधा-बंधाया, नियमित और संयमित हो गया है। पिछले तीस वर्षोंसे ही मैं अपने कार्यमें अव्याहत बढ़ रहा हूँ। गड़ी हई पुरातन साहित्यक संपत्ति के स्थल ढूँढकर रखता है, ठहर-ठहरकर चलने की अपेक्षा निरंतर कार्य करना मैं अधिक अच्छा समझता है।"
ये बातें करते-करते ही एक दिन मैं उनसे उलझ गया, नाहटाजी ! आप इतना अधिक लिखते हैं कि आपके लेख एक साथ कोई देखना चाहे तो उसके लिए असम्भव हो जाता है क्योंकि लगभग सब मिलकर २०० पत्र-पत्रिकाओंमें आपके लेख छपते रहते हैं......."
"हाँ भाई, यही प्रश्न मुझसे हजारीप्रसाद द्विवेदीने भी किया था। सोच रहा हूँ, इनको एक साथ प्रकाशित कर दूँ । अब तक लगभग ११०० लेख शोधपूर्ण साहित्यिक विषयों पर और ५०० लेख सामाजिक, चरित्र-निर्माण तथा आध्यात्मिक विषयों पर छप चुके हैं। चित्रकला, इतिहास, पुरातत्त्वकी शोध ही इन लेखोंका प्रमुख विषय है। अभय ग्रंथालयसे अनेक ग्रंथ भी प्रकाशित हो चके हैं। हो सकेगा तो यह कठिनाई भी दूर होगी।
प्रतिदिन वही धैर्य, वही लगन, वही मस्ती, वही मुस्कान, देख-देख मैं हैरान हो जाता। २० हजार हस्तलिखित प्रतियोंका परिशीलन, लक्षाधिक हस्तलिखित प्रतियोंका निरीक्षण, तीस हजारसे अधिक हस्तलिखित ग्रंथोंकी सूचीका निर्माण । जैन साहित्य, इतिहास, राजस्थानी और हिन्दीको प्राचीन निधि तथा देशी भाषाओंकी एक-एक नसको जाननेवाला यह कुशल चिकित्सक हमारे देशका एक जागरूक स्फुलिंग है, निर्माण केन्द्र है, साकार तपस्वी है। और जो कुछ है, सब भीतर ही, नाहटाजी बाहर कुछ भी नहीं हैं। जब मैं कुछ पूछता, वे मेरी ओर इस तरह देखते कि उन्हें मुझसे कुछ मिल रहा है। पर यह तो एकदम असत्य था । मैं ही उन्हें ठग रहा था । सत्य तो यह है कि वे सबसे सदैव इसी तरह ठगे जाते हैं।
यह तो हुआ महान् अध्येता और विदग्ध विद्वान् श्री नाहटाका व्यक्तित्व । पर मानव नाहटाका जीवन भी आदर्शकी कड़ियोंसे निर्मित हुआ है । वह किसी भी मानवके लिए आदर्श बनाने के योग्य हैं। उनमें दया, शील, और पितावत् महान् स्नेह है । परिवारके हर व्यक्तिको सुविधाका वे पूरा ध्यान रखते हैं । बच्चोंमें बच्चोंकी सी बातें, विचारकोंमें महान् विचारक, सफल पिता, सफल व्यवसायी, वे सभी कुछ एक साथ हैं। सादा भोजन, उच्च विचार, ईश्वर भक्ति वर्ष में ३ माह, व्यापारकी साधना, यही उनका जीवन क्रम है।
त्यागी इतने कि वर्षके ९ महीने साहित्यको अर्पण। वे सत्पथके प्रेरक, शान्ति लताके मल और क्रोध भुजंगके महामंत्र हैं। यद्यपि श्री नाहटाजी सबके कुछ और कुछ के सब कुछ हैं. पर फिर भी उनकी एक निश्चित दिशा है, गन्तव्य ध्रुव सत्य है । “एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय" उनके जीवनका सत्र है। सं० १९८४ से ही यह तपस्वी हस्तलिखित प्रतियों, लिपियों, चित्रों, खण्डहरों, शिलालेखों, ताडपत्रों आदिके विशाल क्षेत्रमें खेलता जा रहा है। ग्रंथालयका कला-भवन अनेक प्राचीन वस्तुओंसे सुसज्जित है, जो दर्शनीय है।
एक प्रश्न के उत्तरमें उन्होंने कहा, "नामका लालच मुझे नहीं, पारिश्रमिककी चिन्ता नहीं, बस लिखनेसे संतोष मिलता है । और यह आनन्द ही जीवनका रहस्य है। प्राप्तिसे ज्यादा आनन्द खोजमें है।" और यह साधक निरंतर गतिशील है । वही सरलता, वही दृढ़ता और वही अविरल तप ।
अन्धेरी राहोंको नाहटाजीने अच्छी तरह देखा है। देखा ही नहीं. प्रकाशित भी किया है। वे पाषाण भी हैं तो नींवके, बूंद भी हैं तो स्वातिकी कांटे भी हैं, तो चिन्तनके, शुष्क भी है तो साकार ज्ञानसे, कोई उन्हें कुछ समझे। मेरी धड़कनोंमें तो पर्याप्त नग्न यथार्थका स्पन्दन है। २९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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