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किसी भी साहित्यिककी, धार्मिक जिज्ञासूको और शोध प्रेमीकी प्यास यहाँ तप्त हो सकती है। खड़ा-खड़ा मैं पन्ने पलटने लगा। बहुत समय निकल गया । पुनः बाहर निकलनेको उद्यत हुआ ही था कि एक सम्भ्रांत सज्जनने भीतर प्रवेश किया। नमस्तेके पश्चात मैंने कहा..." "जी......"मैं नाहटाजीके दर्शन करने आया हूँ ....."आप बता सकते हैं, वे कहाँ हैं ?
कहो भाई, मैं ही हूँ। - ऊंची-ऊँची धोती, विशाल मस्तिक, अधपके बाल, खिलती मूछे, मझला कद, सुगठित शरीर, अनुकरणीय स्फूर्ति और स्मितिमें डूबा उनका प्रकाशमय आनन, वृषभ स्कंध और ऊर्जस्वित उत्साहको मैं स्नेह भरे एक बोलमें समझ गया । मैंने श्रद्धासे उन्हें प्रणाम किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। उन्होंने विश्वास भरे स्वरमें पूछा-कब आये ?
जी........."मैं रातको आगया था । अच्छा बैठो, मैं अभी आता हूँ........"कहते हुए वे बाहर चले गये ।
अर्द्धनग्न शरीर पर धोती लिपटी हई, हाथ में चंदनका थाल लेकर वे घरकी ओर बढ़ गये। कलाभवनके सामने हो जैन मन्दिरको देखकर मेरे लिए उनको उस वेशमें उस समय समझना अधिक कठिन नहीं हुआ।
यों तो राजस्थान तपोभूमि रहा है। वीर प्रभूके कणमें जाने अनजाने विदित नहीं, कितने असाधारण साधक हो गये हैं । पर जीवनकी इन २५ रेखाओंको पार करते मुझे अबतक देशमें साहित्यका ऐसा सरल साधक दिखाई नहीं पड़ा। विश्वास नहीं हुआ कि मरुभूमिमें जीवनका यह मधुर स्रोत !.......... साधनाकी यह उत्ताल शैवालिनी । प्रगति और परंपराका यह विचित्र समन्वय ! यह व्यक्तित्व !
जैन साहित्यका शोध-स्नातक होने के कारण प्रयागसे मैं बीकानेर आया था। नाहटाजीके दर्शन पहले किए नहीं। यों पत्र व्यवहार पहले हो गया था। कई दिनोंसे आशीर्वाद पाता रहता था। विचारों और व्यक्तित्वके मननमें इबा ही था कि वे कला भवन आये और मझे भोजन करने के लिए कहा । मैं चुपचाप चला गया। वे सामने बैठ गये, पद्मासन लगाये, तपस्वीकी भाँति मेरे कार्यका विवरण पूछते रहे। मैंने कहा-नाहटाजी, मैं तो मिट्टीका एक लोथ हूँ, आप जैसा चाहें, ढालें। कुशल शिल्पीके हाथोंसे तो मिट्टीके कुरूप खिलौने भी सुन्दर हो जाते हैं, हिली हुई नींव भी मजबूत बन जाती है। मेरा विषय भी अत्यन्त कठिन है, अध्ययन नहीं के बराबर है और अस्वस्थ भी रहता है। आदि कालीन जैन-अजैन रचनाओंके आप मर्मज्ञ आचार्य हैं । मैं बोल गया। वे ध्यानसे सुनते गये, जैसे मैं कोई सार पूर्ण बात कह रहा हूँ। पर अभिव्यक्तिमें तो विनम्र निवेदन और अपनी अध्ययनगत असमर्थता मात्र थी।
भोजन करते-करते मैंने देखा, उनका वरदहस्त मेरी ओर उठ गया । अब चिन्ता मत करो, यहाँ तुम्हें सब ग्रन्थ मिलेंगे। अच्छे कार्यों में बाधाएँ तो आती हैं, निराशामें आशाको किरण सदैव छिपी रहती है। अध्ययन एक तप है। निरंतर अध्ययन और अभ्यास ही सिद्धिकी कुंजी है, लक्ष्य की प्राप्ति है।" यह कहकर वे चुप हो गये।
मैंने देखा, कैसा अपूर्व साधक है, निश्छल, सरल, गंभीर और हँसमुख ।
हिन्दी साहित्यका यह महाविद्वान दूसरा रामचन्द्र शक्ल है ! जिसमें गांधीसी कार्यनिष्ठा है, प्रार्थना और ईश्वरीय विश्वासके प्रति प्रबल धारणा है। टैगौर-सी सौजन्यता,सौम्यता और अध्ययन के प्रति अदम्य उत्साह है। शुक्लजीकी भाँति जिसमें गंभीर चिन्तनकी प्यास है और नेपोलियनकी भाँति लक्ष्य प्राप्तिकी धन है । अव्याहत जुटे रहनेका उसमें महान् गुण है । २९० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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