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उनको कभी नहीं देखा पर सरस्वतीके लिए लक्ष्मोका चलन करते मैंने उन्हें कई बार देखा है। लक्ष्मी उनके पास बरसती हैं पर वे सरस्वतीको अधिक सरसब्ज करते हैं। वर्ष में सरस्वतीको यदि ग्यारह कपड़े देते हैं तो लक्ष्मीको केवल एक । मगर उनकी सरस्वतीकी क्या कोई लक्ष्मी आंकेगा ? उनकी सरस्वती कई लक्ष्मियों से भारी और अधिक जड़ाऊ पड़ती है।
नाहटाजी प्रतिदिन जितना पढ़ते हैं, उतना लिख भी लेते हैं । जहाँ उनके पढ़े हुए ग्रन्थोंकी संख्या हजारों तक पहुँची है, वहाँ उनके लिखे लेखोंकी संख्या भी उतनी ही है। छोटा-से-छोटा और बड़ा-से-बड़ा कोई पत्र उठा कर देख लीजिये उसमें नाहटाजी अवश्य मिल जायेंगे। किसने इतना लिखा है और कौन इतना छपा है ? मुझे कोई नाम याद नहीं आ रहा है। अद्भुत है इनका लेखन । मशीन भी अनबैलेंस्ड हो जाती है काम करते-करते। मगर यह व्यक्ति यंत्र-तंत्र और मंत्र सभीको पीछे धकेलता हुआ अनवरत अपनी साधना-निष्ठा और धुनमें लगा हुआ है।
[ सात ] नाहटाजी बहुत संमयी और बहुत नियमी हैं। रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल सबमें वे बहुत सीधे और सादे हैं। उनपर आडंबरकी जू तक नहीं रेंगती, लींक तक नहीं फटकती। वे पक्के जैनी हैं। उनके अपने कई व्रत, नियम और उपवास हैं । रात्रिको वे भोजन नहीं लेते हैं । पानीका भी आगार रखते हैं। बंधी बंधाई तिथियोंमें बंधीबंधाई सब्जियोंके अतिरिक्त वे आहार भी मर्यादित ही लेते हैं।
नाहटाजो एक ऐसा व्यक्तित्व है, जिसपर लिखनेके लिए दो-दो कलमें साथ-साथ जोती जा सकती हैं । मेरा मन उनके ढेरों संस्मरणोंसे उपजीवित है। उनका एक-एक संस्मरण एक-एक माला बन सकता है। मगर आज उन मालाओंको फिरानेवाले कितने मिलेंगे?
चैतन्यका उद्धार तो सभी करते हैं मगर जड़का उद्धार करने वाले बिरले ही होते हैं। नाहटाजीने यह बीड़ा उठाया। उन्होंने कड़ा करकट तथा रद्दी समझे जानेवाले हस्तलिखित ग्रंथों आदि का उद्धार कर कई अज्ञात कवियोंको प्रतिष्ठित किया। हमारी प्राचीन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संपदाको श्रीहीन होनेसे बचाया और इस धरोहरको व्यवस्थित रूपसे संगहीत करनेका राजकीय और सार्वजनिक रूपसे सभीका ध्यान आकृष्ट किया। वस्तुतः उनका व्यक्तित्त्व एक शिलालेखी व्यक्तित्त्व है, जो आज हमारी समझमें उतना उभरकर नहीं आ रहा और शिलालेखोंका महत्त्व तात्कालिक समझ में आता भी कम ही है, मगर समय बतायेगा कि वस्तुतः समयकी वह शिला भी धन्य हो गई जिसपर नाहटाजी जैसा व्यक्तित्व अंकित होकर सदाके लिए एक स्मति छोड गया। उनकी षष्टिपति पर मेरा एक मन नहीं, मेरे जैसे अनेकों मन स्वतः ही उन्हें वन्दन करनेके लिए उमड़ पड़ते हैं।
श्री अगरचन्द नाहटा : एक प्रोफाइल
डॉ० हरिशंकर शर्मा 'हरीश'
प्रातः कालकी बेला । पूजाका समय । स्थान ढढता-ढढता मैं कला-भवन आया। नीचेके वाचनालयमें सशंकित होकर प्रवेश किया और हिन्दी साहित्यकी लगभग समस्त पत्र पत्रिकाओंको देख कर मन आश्चर्यसे भर गया । लगता था, किसी भी भूखे मस्तिष्कका यहाँ सरलतासे वर्षों तक निर्वाह हो सकता है।
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