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वे बोले " मैं सदासे हिन्दी, राजस्थानी, जैनसाहित्योंमें दिलचस्पी लेता रहा हूँ । इतिहासकी सामग्री तथा लुप्त होते हुए प्राचीन साहित्यको प्रकाशमें लाने में सदा प्रयत्नशील रहा हूँ मेरे पचासों लेख जो विचारप्रधान हैं, पिछले २८ वर्षसे हिन्दी और गुजराती १४० पत्र पत्रिकाओंमें लगभग १२००० फुटकर लेख प्रकाशित हुए हैं। इनमें बहुमूल्य इतिहास और साहित्यकी सामग्री है । यह लगभग ६००० पृष्ठोंका मैटर है । यदि कोई साहसी प्रकाशन इन्हें प्रकाशित करें तो पांच पांचसौ पृष्ठोंके लगभग १२ संकलन प्रकाशित हो सकते हैं । "
नाहाजी आजकल "पृथ्वीराज रासो" की हस्तलिखित प्रतियोंसे एक प्रमाणित संस्करण तैयार कर रहे हैं अतः मैंने इसी खोजके संबन्ध में नाहटाजीसे पूछे --
वे " बोले २० वर्ष पूर्व आत्मानन्द पत्र में डा० बनारसीदास जैनने एक विज्ञप्ति प्रकाशित की थी । कि "पृथ्वीराज रासोंकी हस्तलिखित प्रतियोंके संबन्ध में जिनकी जानकारी हो वे मुझे सूचित करें मेरे संग्रह में भी इसकी एक महत्वपूर्ण प्रति प्राप्त हो चुकी थी । उसीकी सूचना मैंने इन्हें दी । उस प्रति तथा अनूपसंस्कृत लाइब्र ेरी बीकानेरकी अन्य प्रतियोंको देखनेके लिये बीकानेर पधारे । हमारी प्रति तो वे साथ ले गये, क्योंकि उन्हें जो ओरिएन्टल लाइब्रेरी लाहौर में अपूर्ण प्रति मिली थी । उस संस्करणकी पूर्ण प्रति थी । अनूप संस्कृत लाइब्र ेरी की 'रासो" की प्रतियां मुझे विदित हुआ, कि हमारे संस्करणकी प्रतियोंसे भी लगभग आधे परिमाणका लघु संस्करण थी। तभी से मेरा ध्यान "रासो" की हस्तलिखित प्रतियोंके शोधकी ओर गया, क्योंकि काशीनागरीप्रचारणी सभासे प्रकाशित बृहत् संस्करण लगभग ६६ हजार श्लोक परिमाण का है । हमारे संग्रहकी प्रति इससे चतुर्थांश परिमाण की है। इस लिए समस्या यह हुई कि "रासो" में इन तीन संस्करणों के परिमाण में बहुत अन्तर है, उसकी प्रामाणिकताकी खोजकी जाय । प्राप्त प्रतियों की शोध कर " पृथ्वीराज रासोकी हस्तलिखित प्रतियाँ" के नामसे एक लेख १५ वर्ष पूर्व राजस्थानी पत्रिकामें प्रकाशित किया गया है . अबतक "रासो" की प्रतियोंकी शोध ही करता रहा हूँ ।
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नाहाजी के आध्यात्मिक लेख जीवनके अनुभवोंसे परिपूर्ण हैं । उनमें हमें एक ऐसे अनुभवी विशाल हृदय के अनुभव होते हैं, जिसने जीवनके हर पहलूको गहराईसे देखा है । अतः मैंने नाहटाजीसे उनके जीवन मनोविज्ञान तथा अध्यात्मिक विषयक भावोंकी मूल भावनाके विषय में पूछा
वे बोले" जैन मुनियोंमें कृपाचन्दसूरी के सम्पर्क तथा सत्संग के समय आध्यात्मज्ञान प्रसार मण्डल आगरासे प्रकाशित श्रीमद् देवचंद और बुद्धिसागर सूरीके आध्यात्मिक ग्रंथ मेरे देखनेको आये उनमें से कुछ ग्रन्थ मंगवाये गये और सिलहट (आसाम) - अब पूर्वी पाकिस्तान में अपने निजी व्यापार के सम्बन्धमें जाने पर साथ ले गया। वहां उनका अध्ययन करनेसे मेरा आध्यात्मिक प्रेम जागरूक हुआ । श्रीमद् राजचंद्र, चिदानंद, आनन्दघन, देवचंद और बुद्धिसागर सूरीके ग्रन्थोंके परायण से आध्यात्मिक भावनाको बहुत बल प्राप्त हुआ । जैन एवं अन्य दर्शकों के ग्रन्थों को पढ़नेकी रुचि प्रारम्भसे रही है। इस लिए दर्शन और आध्यात्मका ज्ञान बढ़ता गया. इस विषय को लेकर मैंने अनेक लेख धार्मिक पत्र पत्रिकाओंमें लिखे हैं ।" हम बातचीत करते करते एक दूसरेके निकट आ गये हैं । अतः अब मैंने उसकी भावी योजनाओं तथा रुचिके विषयों की बाबत जानकारी चाही । नाहटाजी अथक परिश्रमी हैं- पकी हुई अवस्थामें उनका हिन्दी प्रेम और शोध सम्बन्धी जोश देखकर चकित रह गया ।
वे बोले "मेरा विशेष कार्य हस्तलिपियों, चित्रों तथा मुद्राओं आदिका संग्रह है । इनका एक विशाल संग्रहालय अपने निवास स्थान बीकानेर में एक स्वतन्त्र भवन में किया है । इसमें मेरे द्वारा इकट्ठा की हुई
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २८५
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