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हस्तलिपियों ग्रन्थोंकी संख्या २० हजार है । इतने ही लगभग प्रकाशित ग्रन्थ पत्र पत्रिकायें हैं । "अभय जैन
।
ग्रंथालय" के नामसे इसका संग्रह हुआ है अपने पूज्य ज्येष्ठ बन्धु अभयराजजी की स्मृति में इस ग्रन्थालय स्थापना की है । अपने पूज्य पिता स्व० शंकरदानजी की स्मृतिमें नाहटा कलाभवन स्थापित किया है । जिसमें सहस्राधिक प्राचीन चित्र, मुद्रायें और कलापूर्ण प्राचीन विविध सामग्रीका संचय किया गया है ।
आपने अनेक ग्रन्थोंमें संस्कृत अपभ्रंश, प्राकृत, डिंगल इत्यादि भाषाओं का शास्त्रीय अध्ययन किया होगा । जब मैंने उनसे उनकी शिक्षा के संबंध में प्रश्न किया तो वे बोले
"मेरी शिक्षा अधिक न हो सकी । केवल ५वीं कक्षा पास की थी, छठी तक आते जाते शिक्षा बंद सी हो गई थी । केवल अध्ययन स्वाध्याय और श्रमसे ही मैंने अपने आपको आगे बढ़ाया है । एक मात्र व्यवसाय में लगे रहकर अपनी लगनमें तमाम झंझटों के रहते भी मैं सदासे विद्यार्थी रहा हूँ मेरा तो विचार है कि हमारी लगन, श्रम तथा उद्योग वे ताव हैं, जो ज्ञान क्षेत्रमें हमारे लिए पूर्ण लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं । नाहाजी दृढ़ता पूर्वक अपनो दिशामें आगे बढ़ते जा रहे हैं। वर्ष में ३ महीने व्यापार में लगाकर शेष सारा समय आप शोध कार्यमें देते हैं । व्यर्थ के आडम्बर से दूर रहते हैं । उनका जीवन साहित्य में भरपूर है । उनके निम्नलिखित पद मैं भूल नहीं पाता हूँ ।
"मेरा भावी प्रोग्राम अपने संग्रहालय को पूर्ण कर, उसका उपयोग कर उसे प्रकाशमें लाकर आध्यात्म की ओर बढ़ने का है । मैं सदा अन्य अन्वेषकों, अनुसन्धान कर्ताओं, हिन्दी प्रेमियों को शोध कार्य में सहयोग देने, आगे बढ़ाने, सहायता करनेमें प्रयत्नशील रहा हूँ ।"
धन्य रे साहित्य साधक ।
नाहटाजी : एक शिलालेखी व्यक्तित्व
डॉ० महेन्द्र भानावत
बीकानेर में हम
[ एक ] सन् १९५५ में जब कॉलेज में दाखिला लिया ही था, लोग अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन ग्रन्थालय में रहते थे। अधिकतर मेवाड़के और उसमें भी एक ही गांवके हमलोगों की संख्या ज्यादा थी । मेरे बड़े भाई डॉ० नरेन्द्र भानावत पहले से ही वहाँ अध्ययन रत थे । प्रारम्भसे ही लेखन-पाठन में उनकी उम्र गति थी और पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखते छपते भी थे। सुबह होते-होते एक दिन उनके पास एक व्यक्ति आया । घुटनों ढकी किसी तरह कमर में ठसोली हुई दोलंगी धोती, जिसकी एक लांग चलतेचलते भी खुल जानेको मुकर हो उठती है, सफेद जब्बा जिसकी दोनों तरफ की जेबें कागजी कटपीसोंसे बैलेंस्ड, अंकुराई दाढ़ी, मोटे पेचोंकी ऊँची उठी हुई मैल खाई मारवाड़ी पगड़ी, ममत्वहीन मूँछें, एक तरफ घिसे तलेके रिजेक्टेड जूते और इन सबके बीच कोठार में पड़े गेहुएँ रंग-सा भरापूरा सेठ - व्यक्तित्व । मुझे नहीं मालूम कि यही व्यक्तित्व नाहटाजीका है । नाम सुन रखा था पर साहित्यका चूल्हा परिंडा मैंने तब तक नहीं संभाला था । पता नहीं क्यों केवल कविताएँ पड़ता था, यदा कदा उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में भी भेज देता था । मेरे संतोषके लिए यह पर्याप्त था । अत: नाहटाजीके आने और चले जानेपर भी मेरा मन सामान्य ही बना रहा ।
२८६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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