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श्री अगरचन्द नाहटा : प्राचीन साहित्य शोधक
प्रो. रामचरण महेन्द्र हिन्दी साहित्य तथा उसकी गतिविधिसे हो सकता है ? अथवा ये किसी निकट सम्बन्धी व्यापारके लिए जयपुर पधारे हैं। . मैं देख रहा हूँ ट्रंक इनके पास नहीं हैं। केवल दो बिस्तरे हैं। छोटी बड़ी पोटलियाँ हैं, एक छोटी पीपी है। कुछ और फुटकर सामान । हो न हो पश्चात् कमरेके बाहर दरवाजे पर तीन नाम दर्ज कर दिये गये। प्रो. रामचरण महेन्द्र, श्री अगरचन्द्र नाहटा, श्री भंवरलाल नाहटा ।
श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, मेरे मनमें नाहटाजीकी जो कल्पना थी, चूर चूर हो गयी। मैं सोचने लगा हैं श्री अगरचन्द्रजी नाहटा-प्राचीन हिन्दी अपभ्रंश, राजस्थानी भाषाओंके शोधकर्ता सदा जोवनमें साहित्यको प्रधानता देनेवाले साधक, प्राचीन चित्रकला, हस्तलिपियोंके संग्राहक, प्राचीन ज्ञानके बिखरे पन्नों को एक स्थान पर एकत्र करनेवाले सैकड़ों लेख प्राचीन पुस्तकों व जैन साहित्य पर प्रकाश डालने व सम्पादन करनेवाले राजस्थानी लेखक तथा विचारक, बीकानेरमें सांस्कृतिक संग्रहालयके स्थापक ।
धीरे-धीरे हम परस्पर खुले । नाहटाजीसे एक हिन्दी लेखकके नाते पुरानी जान पहिचान निकल आई। प्रायः दोनों एक प्रकारकी विचारधारा और उद्देश्योंके साहित्य सेवी होने के कारण जल्दी ही घुलमिल गये । तीन दिन साथ रहनेका सौभाग्य मिला ।
नाहटाजीका जीवन सरल और आडम्बर शून्य है। बाहरसे देखनेपर आपको विदित होगा मानो किसी सरल हृदय ग्रामीण मारवाड़ीसे बातें कर रहे हैं। उन्हें किसी प्रकारका घमण्ड छ तक नहीं गया है। प्राचीन शोध, पुराने ग्रंथों विशेषतः जैन ग्रन्थोंकी खोज, आध्यात्म चिंतन, पठन-पाठन यही उनका जीवन है।
वे प्रातः साढ़े चार बजे या पाँच बजे जागकर भजन पूजा जाप इत्यादिके अभ्यस्त हैं। मैं प्रायः उन के भजन रंजनकी मधुर ध्वनि सुनकर ही जागता रहा। वे आध्यात्म चिंतन तथा भजनोच्चारण करते समय आत्मविभोर हो उठते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं रहता कि वे कहाँ हैं।
स्थिति यह है कि जब कभी समय मिलता है, मैं उनके पीछे और मेरी लेखनी साथ ही साथ रहती हई । टहलने, भोजन करने, मीटिंग तथा अन्य स्थानोंमें हम साथ रहे। नाना साहित्यिक चर्चाएँ चली। उनकी साहित्य साधनाके सम्बन्धमें अनेक प्रश्न पूछे, टीकाओंका समाधान किया, भावी योजनाओंका कार्यक्रम मालूम किया।
नाहटाजीसे बातें करके प्रत्येक व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है जैसे एक हृदय दूसरेसे मिल रहा हो, मध्यमें कत्रिम दिखावे की कोई दीवार नहीं।
मैं प्रश्न कर रहा हूँ। नाहटाजी अपने जीवनके रहस्योंको खोलते जा रहे हैं।
मेरा प्रथम प्रश्न यह है कि आपकी साहित्य साधना कब, कैसे और किन परिस्थितियों में प्रारम्भ हुई।"
नाहटाजी कह रहे हैं अबसे २७ साल पूर्व संवत् १९८४ में हमारे गुरुजी श्री जिन कृपाचन्द्रसूरिका चातुर्मास बीकानेरमें हमारे भवन कोटरीमें हुआ था। उनकी शिष्ट मण्डली प्रधानतः श्री सुखसागरजीके सम्पर्क में. गरुजी तथा इनके शिष्यके व्याख्यानादि सुनकर जैनधर्म सम्बन्धी मेरी धार्मिक भावनाएँ बढ़ीं। एक दिन "जैनआणंद काव्य महोदधि" के सातवें भौतिकमें "कविवर समयसन्दर" नामक मोहनलाल दलिचन्द
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २८३
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