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पत्र-व्यवहारमें नाहटाजी बड़े जागरूक रहते हैं। प्रतिदिन पत्र लिखने-लिखानेके लिए उन्होंने अपना कुछ समय २-३ घंटे नियत कर रखा है। सामान्यतः वे दूसरोंसे बोलकर ही पत्र लिखाते हैं, क्योंकि नाहटाजोकी लिपि स्पष्ट व सुन्दर नहीं है । उसे पढ़ लेना सहज नहीं है । जो पूर्वापर प्रसंगको थोड़ा बहुत जानता हो, वह तो फिर भी उन टेढ़े-मेढ़े अक्षरोंमें अपने कामका अर्थ ढूँढ़ लेगा । पर वे इतने जागरूक रहते हैं कि संयोगसे किसी दिन दूसरेका मिलान न हो तो वे स्वयं हो पत्र लिखना आरंभ कर देते हैं, उन्हें इस बातकी चिन्ता उस समय नहीं रहती कि इस पत्रको कोई पढ़ सकेगा या नहीं। किसी पत्रके उत्तरकी अधिक दिन नहीं निकाल सकते। इसीलिए उनके यहाँ स्मरण-पत्र भेजनेकी लम्बी श्रृंखला लगी रहती है। एक-एक कार्यके लिए मुझे लगातार दो-तीन वर्षों तक प्रति माह स्मरण-पत्र मिलते रहे हैं और उनकी श्रृंखला तब कहीं जाकर टूटी जब वह कार्य पूरा हो गया। दिनरात व्यस्त रहने वाले वणिक परिवारके साहित्य-मनीषीकी यह पत्राचारगत उदारता आजके तथाकथित 'बड़े' कहलाने वाले लोगोंके लिए प्रेरणादायी बन सकती है।
गहन ज्ञानके धनी होकर भी नाहटाजी नये ज्ञान और तथ्यकी प्राप्तिके लिए सदा जिज्ञासु रहते हैं। यह जिज्ञासावृत्ति उन्हें सदा जागरूक और नियमित बनाये रखती है। किसी नये ग्रंथ, कलात्मक वस्तु, या नये तथ्यकी जानकारीके लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। अपनी व्यावसायिक यात्राओं में भी साहित्य-जिज्ञासा वृत्ति मन्द नहीं होती। जब किसी ग्रन्थागारमें उन्हें कोई नया ग्रन्थ या नया ज्ञातव्य प्राप्त होता है तो वे उसे पूरे पढ़े बिना और आवश्यक नोट लिये बिना नहीं छोड़ते । इसके लिए वे अपने अन्य आवश्यक कार्यक्रम, यहाँ तक कि खाना भी, रद्द करते देखे गये हैं। आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुरकी कुछ प्रतियोंको देखते हए, मैंने स्वयं उनके इस जिज्ञासा-भावको देखा-परखा है।
नाहटाजीने अबतक जितने निबन्ध लिखे हैं, कदाचित संख्यामें, विश्वमें और किसी विद्वानने नहीं । औसतन वे प्रतिदिन एक निबन्ध पिछले वर्षों में लिखते रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नया पढ़ते न हों । नित्य कुछ न कुछ नया पढ़ते रहने की भावनासे उन्होंने अपना बड़ा सुन्दर कार्य क्रम बना रखा है । वे प्रतिदिन दो चार सामायिक करते हैं । 'सामायिक' के लगभग इन दो घंटोंमें वे प्रतिदिन नया साहित्य पत्रपत्रिकाएँ आदि पढ़ते ही रहते हैं । नित्यका यह क्रम होनेसे वे एक वर्ष में हजारों नये पृष्ठ पढ़ लेते हैं ।
अप्रमाद भाव और जिज्ञासा-वृत्तिके परिणाम स्वरूप नाहटाजी दूसरोंके लिए सदैव उदार, सहयोगी और प्रेरक बने रहते हैं । बार-बार पत्र लिखकर किसी साहित्य-शोध कार्य में लगे रहने की प्रेरणा देना, किये जा रहे साहित्यिक कार्यकी प्रगतिके सम्बन्धमें बार-बार पूछताछ करते हुए आवश्यक निर्देश देते रहता, नये शोध-विषय सुझाते रहता, नाहटाजीका स्वभाव-सा बन गया है। उनका पुस्तकालय एवं ग्रन्थागार सबके लिए सदैव खुला रहता है। कोई किसी भी समय, यहाँ तक कि उनकी अनुपस्थितिमें भी, जाकर उसका
उपयोग कर सकता है। . मुझे अपने शोधकार्य और अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियोंमें नाहटाजीसे बड़ी प्रेरणा और सम्बल मिला है । इस अवस्थामें भी वे मनोयोगपूर्वक गवेषणाके नये-नये क्षितिज उद्घाटन करने में लगे हुए हैं।
प्राचीन भाषा और साहित्यका यह गवेषक विद्वान् शताधिक वर्षों तक हमारा मार्ग-दर्शन करता रहे यही शुभेच्छा।
२८२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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