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स्नेह था। उन्हींकी प्रेरणासे मैं कॉलेज शिक्षाके साथ-साथ 'साहित्यरत्न' की तैयारी भी करने लगा। अधिकांश पुस्तकें मुझे 'सेठिया लायब्रेरी' से मिल गई थीं। शेष पुस्तकोंके लिए बाबूजी [ स्व. भैरोदानजी सेठियाको सभी इसी नामसे पुकारा करते थे] ने मुझसे कहा कि नाहटोंकी गुवाड़में 'अभय जैन ग्रन्थालयमें भी देख लेना, वहाँ श्री अगरचन्द जी होंगे।
मेरी प्रसन्नताकी सीमा न रही । मैं उसी समय नाहटोंकी गुवाड़के लिए रवाना हो गया। शायद अगस्तका महीना था । जोरोंकी गरमी पड़ रही थी। दोपहरका समय था। मैं पूछता-पूछता सीधा अभय जैन ग्रंथालय पहुँचा । एक तिमंजिला मकान । प्रवेशके लिए छोटा था दरवाजा, जो खुला होनेपर भी बन्द सा रहता है। कोई भी थोड़ा धक्का देकर, उसे खोलकर, फिर हौलेसे बन्दकर, ऊपरकी मंजिलमें जा सकता है। यही स्थल नाहटाजीकी साहित्य-साधनाका केन्द्र है।
मैंने ऊपर जाकर देखा, मुख्य कमरा चारों ओर किताबोंसे आवृत है। बीच में एक ओर पत्रपत्रिकाओंका ढेर लगा है, दूसरी ओर कई पुस्तकें खुली-अधखुली पड़ी हैं। दरी बिछी हुई है, उसपर गादी तकिया लगा है। कमरेमें पंखा है पर वह इस समय बन्द है। मुझे पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओंके ढेरमें किसी व्यक्तिको खोजने में कुछ क्षण लगे। वह व्यक्ति, बाहरसे आया हुआ कोई शोधछात्र-सा लगा। उसने पासके कमरेकी ओर इशारा भर कर दिया ।
इस कमरेमें टेबल, कुर्सी, बेंच आदि थी। कमरा इतना छोटा कि वह इन्हीं सबसे भरा था। अलमारियोंमें किताबें थीं । टेबल, कुर्सी, बेंच आदि पर भी किताबें जमी हुई थीं। इन सबके बीच बेंच के बीचोंबीच एक व्यक्ति, किसी साधक सा समाधि लिये अध्ययन में लीन था। बदन पर धोती के अलावा कोई कपड़ा नहीं था । गरमीके कारण कुरता, बनिआइन आदि उतार दिये गये थे। मैंने नमस्कार कर, नाम पता आदि बतानेके बाद किताबोंके लिए कहा। उस व्यक्तिने बिना बिलम्ब किये एक रजिस्टर मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने अपने कामकी आवश्यक किताबें नाम व नम्बर बताये, तुरन्त किताबें निकाल दी गई और और एक दूसरा रजिस्टर मेरी ओर बढ़ा दिया गया। मैंने उसमें किताबों की एन्ट्री कर दी और किताबें लेकर अपने घर आ गया। इस प्रसंगसे नाहटाजीके व्यक्तित्वकी कई विशेषताएँ एक एक कर प्रकट हुई। निरभिमानता, कार्यतल्लीनता, मितभाषिता, आत्मनिर्भरता, उदारता, नियमित अध्ययनशीलता, सतत जागरूकता और वात्सल्य भाव ।
इस प्रसंगके बाद नाहटाजीसे मेरा सम्पर्क उत्तरोत्तर बढ़ता गया। उनके व्यक्तित्व और वातावरण से मुझे कई अनूठी प्रेरणाएं मिलीं।
नाहटाजीके सम्पर्कसे मुझे ऐसा लगा कि उनकी सफलताका रहस्य दो बिन्दुओं में निहित है-अप्रमाद भाव और जिज्ञासावृत्ति। उन्होंने भगवान महावीरकी इस वाणीको 'समयं गोयम मा पमायए'- अपने जीवनमें चरितार्थ कर लिया है। आज साठ वर्ष की अवस्थामें भी बिना सहारे आठ दस घंटेकी लगातार बैठक लगा लेना, उन जैसे धुनी गवेषकका ही कार्य है। युवा छात्रोंका हाल तो यह है कि वे एक घंटा भी तल्लीन होकर क्लासोंमें नहीं बैठ सकते, जबकि उनके लिए कुर्सी है, टेबल है, सब सुविधा और सहारा है । मैंने. तपती दोपहरीमें नाहटाजीको एकरस होकर कार्य करते देखा है। वह भी बिना पंखेका सहारा लिए। मैंने एक दिन अनायास यों ही पूछ लिया-क्या आपको पंखेसे 'एलर्जी' है। वे जरा मुस्कराये और बोले-पंखेकी हवा व्यक्तिको थोड़ी देर बाद काहिल बना देती है, उससे नींद आने लगती है, वह जागरूक होकर काम नहीं कर सकता, यह गर्मी, जो तुम महसूस करते हो, थोड़े समयकी है, पालथी मारकर बैठ जाओ और काममें लग जाओ तो गर्मी-वर्मी सब भूल जाओगे।" यह है कामके प्रति निष्ठा और सच्ची साहित्य-साधनाका रूप ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २८१
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