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हमारे चरितनायकके पड़दादा, ताराचन्दात्मज श्री जैतरूपजी नाहटा डाँडूसरमें ही रहे। कीत्तिशेष पितृजीने जो आध्यात्मिक और भौतिक सम्पत्ति उनके लिए छोड़ी थी, उसका सदुपयोग करते हुए वे भी संवत् १८९० के आसपास स्वर्गवासी हुए।
स्वर्गीय श्री जैतरूपजी नाहटाके उदयचन्दजी, राजरूपजी, देवचन्दजी और बुधमलजी नामक चार पुत्र थे। ऊदी नामिका ज्येष्ठ पुत्री बीकानेरसे ८ मील पश्चिम नाल नामक ग्राममें विवाहित थी। हमारे चरितनायकके पितामह श्री उदयचन्दजी सबसे बड़े भाई थे। उन दिनों लोग विदेशी व्यापारकी ओर आकर्षित होने लगे थे और सुदुर पूर्व तथा दक्षिणकी यात्राएँ होने लगी थीं। अधिकांश व्यक्ति बंगाल, बिहार, आसाम और उडीसा जाते थे और दीर्घावधिके पश्चात आवागमनके सुखद साधनोंके अभावमें कष्टयात्रा पूरी कर स्वदेश लौटते थे।
श्री उदयचन्दजी नाहटा उद्यमशील थे और बाधाओंसे जूझनेकी उनमें सामर्थ्य थी। डांडूसर ग्राममें कृषिकर्म उन्नत स्थितिमें था, अभाव अभियोगकी कोई स्थिति नहीं थी, घर सब प्रकारसे भरापूरा था, लेकिन वे वैश्यधर्म- कृषि, गोरक्षा तो करते ही थे, वाणिज्य भी करना चाहते थे, क्योंकि शास्त्रोंमें कृषि, गोरक्ष्य और वाणिज्य ये तीन काम वैश्य-विहित हैं।'
परमोत्साही श्री उदयचन्दजीते परदेश जाकर व्यापार करनेकी प्रबल इच्छा अपनी स्नेहमयी जननीके सम्मुख प्रस्तुत की। माताने कहा "बेटा! पहिले यहीं शहर बीकानेरमें जाकर काम सीखो,तदुपरान्त विदेशका विचार करना अथवा तुम्हारी बहिन नालमें है, वहाँ काम सीखो और तदुपरान्त बीकानेर चले जाओ।"
मनस्वी उदयचन्दजी किसी सम्बन्धीके घर रहना पसन्द नहीं करते थे, इसलिए माताका प्रस्ताव उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। साथ ही बहिनका आग्रह भी माताकी आज्ञामें सहायक हुआ और आप अन्यमनस्क भावसे सम्बन्धी-ग्राम नालमें आ गये। नालमें रहते थोड़े ही दिन हए थे कि एक दिन बहिन ऊदीने भाई उदयचन्दसे कहा
'भाई ! गायों रहाधोंको जवे खायेंगे, अतः वहाँकी पुरानी खतवाय हटाकर साफ बालू रेत डाल दो।' स्वाभिमानी भाई उदयचन्द नाहटा सम्बन्धीके घर कोई भी निकृष्ट काम करना अपने गौरवके प्रतिकूल समझते थे। इसलिए उन्होंने बहिन द्वारा संकेतित कार्य न करके तत्काल ग्राम डाँडूसर लौटनेका निश्चय किया । वीरचरित क्रिया और फलमें अधिक अन्तरालको प्रश्रय नहीं देते । इसलिए श्री उदय चन्द भी निश्चयके साथ ही स्वग्राम, डाँडूसर पहुँच गये।
उन दिनों कुछ परिचित व्यक्ति परदेश जा रहे थे। उत्साही उदयचन्दने विशेष आग्रहके साथ माताजीसे अपना निश्चय दुहराते हुए कहा "माँ-मैं परदेश जाऊँगा; आप सब यहाँ आनन्दपूर्वक रहें ।।मैं जहाँ भी जाऊँगा आपके आशीर्वादसे आनन्दसे रहँगा और साथ हआ तो पत्र भेज दूंगा।' माँके कल्पनालोकमें परदेशकी दुःखद-कष्टकर लम्बी यात्राका चित्र उभर आया; अपरिचित लोग, अपरिचित भाषा, आवागमनके उचित साधनोंका अभाव, वर्षों पश्चात् पुनः मिलनकी क्षीण आशा, मार्गके मध्य घात लगाकर बैठे जानलेवा डाक-चोर-लुटेरे; सब कुछ भयावह । लेकिन माँने किसी प्रकारका विघ्न उपस्थित न होने देने के लिए मूकभाव एवं साश्रनयनोंसे अपने पुत्रको भारतमाताकी विशाल गोद में विचरण करनेके लिए हृदयको कठोर बनाकर आशीर्वादपूर्वक अनुमति प्रदान कर दी।
कार्यार्थी मनस्वी-मंडल अपरिचित भविष्यत्के तमस्तोयमें उत्साहकी विरल परन्तु सशक्त रेखासे १. 'कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्', गीता, अ० १८, श्लो० ४४ ।
जीवन परिचय : ९
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