SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गदर्शन प्राप्त करता हुआ अग्रेसर हुआ । पाथेय के रूपमें आत्मीयोंकी मंगल-भावनाएँ उनके साथ थीं। वे मार्ग में कहीं पदाति, कहीं अश्वारोही, कहीं उष्ट्रारूढ और कहीं नौकारोहण करते हुए लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते गये । उन्होंने न बुभुक्षाकी चिन्ता की और न पिपासाकी । भूमि मिली तो उसपर सोकर रात बितायी और पलंग मिला तो उसे भी निर्लिप्तभावसे अपना लिया। ऐसे ही कार्यार्थी मनस्वियोंके लिए भर्तृहरिने लिखा है क्वचिद् कन्धाधारी, क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरः क्वचिद् भूमिशय्यः क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनः । क्वचिद् शाकाहारी, क्वचिदपि च मृष्टाशनरुचिः, मनस्वी कार्यार्थी, गणयति न दुःखं न च सुखम् ॥ प्रकरण - पुरुष श्री उदयचन्दजी नाहटा सहित यह कर्मण्य दल संवत् १८९१ के आसपास दिनाजपुर पहुँचा । वहाँ कुछ दिन व्यापार किया और तदुपरान्त सिराजगंज गये और आसामसे माल आनेकी बड़ी मण्डी गवालपाड़ा ज्ञात कर नौकारूढ होकर गवालपाड़ा गये । उन दिनों वहाँ महासिंह मेवराजकी दूकान स्थापित ही हुई थी । श्री मेघराजजी कोठारी गैरसर ग्रामके थे, जो डांडूसर के पास है । श्री उदयचन्दजीने भी गवालपाड़ा में 'उदयचन्द राजरूप' नामसे व्यापारका श्रीगणेश कर दिया और वहाँके एक आसामी व्यक्तिको आपने नौकर रख लिया । आप सिराजगंज इत्यादि स्थानोंसे नौका में माल भर लाते और गवालपाड़ेके दूकानदारों को बेच देते । और गवालपाड़ासे तमाकू, रबड़ आदि माल नौका द्वारा भेजते थे । चोरी-डकैतीका भय अधिक था, इसलिए मालको नौका में घासके बीच में बिछाकर और छिपाकर लाया जाता था । उस समय नौका यात्रा बड़ी कष्टप्रद और प्रकृति- निर्भर थी । जब अनुकूल वायु होती तो चलना होता अन्यथा सप्ताहों तक उसकी प्रतीक्षामें लंगर डा पड़ा रहना पड़ता । दाल-चावल आदिका संग्रह रहता था । आवश्यकता होनेपर नौकामें ही दाल-भात या खिचड़ी बना ली जाती थी और बड़े किनारेकी थाली तस्तरी या केले के पत्तोंपर यथा तथा खाकर समय यापन कर लेते थे । कभी-कभी बाँसके गोंपर मिट्टी लपेटकर उसीमें भात पकाना पड़ता था । किनारेपर पीने नौका ठहराकर मल विसर्जन हेतु जाते तो जंगलोंमेंसे बड़ी-बड़ी जोंकें आकर चिपक जातीं ओर खून लगत तब पता चलता कि जोंक लग गयी हैं । तत्काल थोड़ा नमक उसपर डाल देते, जिससे वह नीचे गिर पड़ती। नमक के बिना जोंकको छुड़ाना सहज नहीं होता। इसीलिए उन लोगोंको नमककी पुड़िया हमेशा . साथ रखनी पड़ती थी । उन दिनों आसाममें रबड़, सरसों, लाख, तमाकू आदि बहुतायतसे उत्पन्न होती थीं, जिसे देकर वहाँके आदिवासी व्यापारी लोग विनिमय में नमक, कपड़ा आदि आवश्यक वस्तु खरीद लेते थे । तत्कालीन आसाममें जादू-टोनेका इतना प्रचार था कि वहाँकी औरतोंसे अत्यन्त सतर्क रहना पड़ता था। कहा जाता है कि मारवाड़ी व्यापारी जब आसामी स्त्रियोंके चंगुल में किसी प्रकार नहीं फँसते तो क्षुब्ध स्त्रियाँ एक चमत्कार दिखा ही देतीं। भात पकाते हुए लोगोंसे वे कहतीं - "क्यों, पोका सिद्ध करते हैं ?" और आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहता जब सारा भात कीटसंकुल- लटमय हो जाता और उसे तुरन्त फेंकना पड़ता । श्री उदयचन्दजी नाहटाने गवालपाड़े में घास-फूसकी छाई हुई ( झौंपड़ी जैसी) दुकान में काम प्रारम्भ किया था । भूकम्प और अग्निप्रकोपका बाहुल्य था, कोठेके द्वार लोहेके थे, जिनपर मिट्टी लपेट दी जाती थी। इससे भीतरकी वस्तुएँ सुरक्षित रह जातीं और अग्निशमनोपरान्त तुरन्त निकाल ली जातीं । उस समयके लौह-द्वार और काष्ठ - विनिर्मित 'कैश बक्स' अब भी गवालपाड़ेकी गद्दी में सुरक्षित हैं । १. भर्तृहरि नीतिशतक । १० : अग्रचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy