________________
मैंने पत्र लिखनेसे पूर्व न जाने कितना साहस संजोया था। सोचता था कि पत्र लिखू । न जाने, उत्तर देंगे या नहीं । सुन रखा था कि वे बड़े व्यस्त रहते हैं। अत्यधिक अध्ययनशील हैं। इस वृद्धावस्थामें भी पुस्तक आँखोंसे ही लगाये ही रहते हैं। कभी एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाते । अध्ययन, मनन, अनुशीलन, चिन्तन और लेख उनके दैनिक जीवनके अमिट अंग है। साहित्य-सेवाकी अजीब धुन है उनमें । लगभग दस-पन्द्रह दिन उधेड़-बुनमें पड़े रहनेके बाद ही साहस जुटाकर मैं वह पत्र लिख पाया था।
पीरियड प्रारंभ होनेमें मुश्किलसे एक मिनट शेष था। पत्र प्राप्त होनेपर उसे पढ़नेका लोभ संवरणकर सकना हरएकके वशकी बात नहीं। किसी अनासक्त पुरुषकी बात मैं कहता नहीं। पत्र हाथमें आते ही उसे पढ़ने की जो सहज स्वाभाविक उत्सुकता जगती है, उससे अपनेको पृथक रखना मेरे हाथमें नहीं। फिर, श्री नाहटाजीका पत्र । उसने तो मेरी उत्सुकताको आतुरतामें ही परिणत कर दिया ।
__ सुख मिश्रित आश्चर्य एवं उत्सुकतापूर्ण आतुरतासे स्पन्दित हो, मैंने पत्र खोला। जैसे-जैसे मैंने पढ़ा, मैं प्रसन्नतामें डूबता गया। मैंने जितनी सूचनाएँ चाही थीं, उनसे कहीं अधिक उनके पत्रमें थीं। मैंने पीएच. डी. के लिए अपने स्वीकृत विषय 'राजस्थानीके श्रृंगार रस परक दोहा साहित्यका अध्ययन' से सम्बन्धित सामग्रीके संकलनमें सहायता प्रदान करनेकी याचना उनसे की थी। श्री नाहटाजीने कई प्रकाशितअप्रकाशित मूल एवं सन्दर्भ ग्रन्थोंके प्राप्ति-स्थान ही नहीं बताए, प्रत्युत उनमें कई ग्रन्थ डाक द्वारा भेज देनेके लिए भी कहा और कई ग्रन्थ नकल करवाकर भेजनेका वचन दिया। उन्होंने एक ऐसे ग्रन्थसे भी अवगत कराया, जिससे मैं बिल्कुल अपरिचित था। उन्होंने कई-एक ऐसे विद्वानोंका नामोल्लेख कर, उनसे सम्पर्क स्थापित करनेके लिए भी लिखा, जिन्होंने राजस्थानी दोहोंपर शोधकार्य किया था।
एक-दो बार ही नहीं, मैंने उस पत्रको कई बार पढ़ा। मुझे लगा, जैसे मैं कोई 'साहित्य कोश' पढ़ रहा हूं । मैं श्रद्धाभिभूत हो गया । एक क्षणके लिए मैं न जाने किन-किन भावोंमें और कहाँ-कहाँ डूबनेउतराने लगा। मेरे मनमें श्री नाहटाजीका जो चित्र अंकित था, उसमें श्रद्धादेवी भाव-तूलिकासे विविध रंग भरने लगीं। कितने विद्वान् हैं वे? जिस समय मेरा पत्र पहुंचा, तत्क्षण उन्होंने पत्रोत्तर टाइप कराकर भिजवा दिया । एक दिनकी भी टाल-मटोल न की ! उनके सत्यनिष्ठ मनने किसी बहानेका भी आश्रयान लिया। कितने निरालस्य और कर्मठ है वे! साहित्यका कितना ज्ञान है उन्हें ? वे निस्सन्देह एक साहित्यकोश ही हैं: अन्यथा इतनी अधिक जानकारी तुरंत ही कैसे दे देते हैं ? किसी पत्र-लेखकके पत्रोत्तर चाहने की प्रतीक्षाकलतासे कितने परिचित है वे? स्यात्, इसीलिए मेरे पत्रका उत्तर उन्होंने शीघ्र ही दे दिया। एक अपरिचितके प्रति भी वे कितना सहज-स्वाभाविक स्नेह रखते हैं और उनके निश्छल एवं निस्पृह हृदयमें आत्मीयता एवं उदारता का अगाध उदधि ही उमड़ रहा है, यह मुझे उसी दिन ज्ञात हुआ। अब वह चित्र मेरे श्रद्धा मनमें सजीव हो चुका था और मैं उसे एक सप्राण 'साहित्य कोश' के रूपमें देखकर, अपने लघु हृदयका श्रद्धाऱ्या चढ़ाता हुआ, भाव-विह्वल हो रहा था।
एक-एक करके उनके कई पत्र आए और डाक द्वारा दो ग्रंथ भी दो प्रत्येक पत्रमें शोध-सम्बन्धी किसी-न-किसी ग्रंथकी सूचना और प्रेरक संदेश रहता है। श्री नाहटाजीका साहित्यकार अत्यन्त निस्पृह, सरल सजग, शोध-पटु, प्रेरक और ईमानदार है। उनकी शोध परक दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म एवं व्यापक है और शोधकार्यके प्रति उनमें उत्साह तथा अनुराग अपार है। पवन और प्रकाश-रहित स्थानों पर अज्ञात
सका दण्ड भोगते हए प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथोंका उद्धार कराना और उन साहित्य-सर्जकों को पुनर्जीवन दिलाना उनके जीवनकी प्रमुख साध है। शोधार्थीकी सहर्ष सहायता करना ही जैसे उनका स्वाभाविक धर्म ही है। मानो, उन्होंने अपना समस्त जीवन साहित्य-साधना और शोध कार्य के निमित्त ही समर्पित कर
२६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org