________________
मेरी गैरहाजिरीमें लौटने लगे तो देवीजीने आपका नाम पूछा और यह जानकर कि आप नाहटाजी हैं तो बच्चोंसे लेकर मेरे परिवारके सभी सदस्योंका हर्ष हिमालयकी नाईं आकाशको स्पर्श करने लगा।
आधुनिक हिन्दी निबन्ध साहित्य यदि एकत्र किया जाय तो नाहटाजी पहले और अकेले निबन्धकार छाँटमें आयेंगे, जिनके द्वारा सर्वाधिक निबन्ध लिखे गये हैं। आश्चर्यकी बात यह है कि हिन्दीका कोई ऐसा पत्र नहीं होगा, जिसमें नाहटाजीका लेख न प्रकाशित हुआ हो और इसमें भी बड़ी बात है कि उन पत्रोंकी प्रतियाँ नाहटाजीके ग्रन्थालयमें सुरक्षित रखी है। यदि हिन्दी पत्रिका साहित्यपर कोई शोध काम करना चाहे तो उसे माननीय नाहटाजीकी शरणमें जाना ही पडेगा।।
नाहटाजी अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओके कर्मठ सम्पादक रहे हैं। आपके सम्पादनमें अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ है जो राजमान्य ग्रन्थायतोंमें शोभा तथा शृंगार बने हुए हैं। राजस्थानी तथा इतर हिन्दीमें प्रकाशित अभिनन्दन तथा स्मृति ग्रन्थोंके सम्पादकोंको देखा जाय तो सामान्यतः प्रत्येक ग्रन्थमें नाहटाजीका नाम सुरक्षित मिलेगा । नाहटाजी वस्तुतः विचारोंके विश्वविद्यालय हैं और साहित्य सर्जनाके विद्यापीठ । आश्चर्य है कि इतने बड़े मेधावी गवेषक तथा सुलेखकके कृतित्व और व्यक्तित्व पर पी-एच. डी० उपाधि के लिए शोध कार्य आरम्भ नहीं हुआ है। मेरे विचारसे नाहटाजीके व्यक्तित्व और कृतित्वपर निश्चय ही अनेक शोध ग्रन्थोंकी संरचना हो सकती है।
नाहटाजीकी उनकी साहित्यिक सेवाओंसे प्रभावित होकर देशकी अनेक मान्य संस्थाओंने अपनी सर्वोच्च उपाधिर्योंसे विभूषित किया है, जिनमें आरा (बिहार) की सिद्धान्ताचार्य और दी इण्टर नेशनल अकादमी ऑफ जैन विजडम एण्ड कल्चरकी विद्यावारिधि उल्लेखनीय है । वास्तविकता यह है कि नाहटाजीको सम्मानितकर ये संस्थायें स्वयं ही गर्वित और गौरवान्वित हुई हैं।
नाहटाजी तेरापन्थ श्वेताम्बर जैन समाजके गण्य परिवारके पोषक तथा जिनशासनके सच्चे और अच्छे उपासक हैं । आज भी आपका जीवन नाना व्रतों, संकल्पों और अनुष्ठानोंसे अनुप्राणित रहता है । यही कारण है कि नाहटाजी ६१ वर्षीय होते हुए भी कामकाजमें नवयुवकसे लगते हैं।
एक स्थल पर स्वनाम धन्य पं० शांतिप्रिय द्विवेदीने लिखा है, कि वाणी चरित्रकी प्रतिध्वनि होती है-नाहटाजीके जीवन पर यह कथनी सत्य चरितार्थ होती हैं। आपकी वाणी आपके चरित्र की परिचायक है । बड़ी बात यह है कि आप कथनी और करनीके गंगा-जमुनी संगम हैं।
___ नाहटाजी मेरे ही नहीं, वे तो प्रत्येक मां सरस्वतीके उपासकोंके उतने ही सगे सम्बंधी हैं जितने की किसी भी परिवारके बुजुर्ग हुआ करते हैं ।
एक महान साहित्यिक संत
श्रीप्रकाश दीक्षित १४ सितम्बर, १९७१ को जब मैं अपने विभागीय कक्षमें पहंचा, तो मेजपर एक अन्तर्देशीय पत्र रखा हआ पाया । पत्र-प्रेषक के स्थान पर टाइप था-अगरचन्द नाहटा, बीकानेर (राज.)।
अभी-अभी चार-पांच दिन पहले ही तो मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था भीर इतनी जल्दी उत्तर ! मैं सुखद आश्चर्य में डूब गया। मुझे लगा, जैसे मैं किसी स्वप्न में खो गया है अथवा किसी कल्पना-लोक की सैरमें विभोर हो गया हूँ ! मुझे अपनी स्थिति तकका ज्ञान न रहा।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org