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उसके बाद अपने आपको कार्य निवृत मान लेते हैं । उनके लिए श्री नाहटाजी साहेब का जीवन ज्वलंत आदर्श है । श्री नाहटाजीके लेखोंके केवल शीर्षककी सूची ही पुस्तिका बन जायेगी । इतना पठन-पाठन और लेखन करने वालेमें आज इस आयुमें भी वही स्फूर्ति एवं कार्यक्षमता विद्यमान है, जो एक युवकमें पाई जाती है । उनके स्वास्थ्य कार्य क्षमताका कारण जहां तक मैं समझता हूं सामायिक, प्रतिक्रमण व्रतादिका यथेष्ट परिपापालन हैं । जिस व्यक्ति से आपको यथासमय उत्तर प्राप्त नहीं होता और मिलने पर वह कह सकता है कि “मुझे खेद है कि उत्तर 'भेजने का ध्यान ही नहीं रहा अथवा अमुक अमुक कारणसे विलम्ब हुआ वह मात्र अपनी लापरवाही के दोषको छिपाता है यह दोष भी आदमीको बड़ा आदमी नहीं बनने देता क्योंकि जो पत्रका उत्तर देने में आलसी है, वह जीवनके अन्य कार्यों में भी आलस करता ही है । अनावश्यक पत्रोंका उत्तर न देना एक अलग बात है । जिन लोंगोका पत्रव्यवहार श्री नाहटा जोसे है वे यह स्वीकार करेंगे कि उनका उत्तर अपेक्षित समयसे पूर्व ही प्राप्त होता है ।
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जीवन में कई बार कई लोग सहसा बिना बनाये गुरु बन जाते हैं । मेरे जीवनमें श्री नाहटा जी का यही स्थान है । उनसे मैंने जीने की कला सीखी है । मैं मानता हूं कि मेरे अतिरिक्त अनेकोंने सीखी होगी क्योंकि दीपक जब जलता है तो रोशनी किसी एक पतंगे तक सीमित नहीं करता, जहां जहां तक उसकी पहुँच होती है उसमें आने वाले हर प्राणीको वह प्रकाशित कर देता है ।
परमपितासे यही विनय है कि वह लक्ष्मी और सरस्वती के वरद पुत्र श्री अगरचन्दजी नाहटाको दीर्घायु करें ।
श्री शोध के अजस्त्र प्रेरणा स्रोत डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर
श्रद्धेय श्री अगरचन्दजी नाहटा प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं । उनकी पैनी दृष्टि और प्रभावी लेखनी से एक ओर जहाँ विविध साहित्यकी सर्जना हुई है, वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों, शोधकों और अध्येताओं का जन्म भी हुआ है। नाहटाजीकी शोधप्रियता, सरलता और स्नेहिल सहानुभूतिने उन्हें ज्ञानके क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया है उन्हें चलता-फिरता एक विश्वकोश भी कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी । वही कारण है कि शोधकों को जिस किसी भी सूचना की आवश्यकता होती है । वे नाहटाजी को पत्र लिखते रहते हैं और नाहटाजी भी उपलब्ध सूचनाओंसे तत्काल अवगत कराने का प्रयत्न करते हैं ।
मैंने सन् १९६० में जब संस्कृतका एम. ए. पूरा किया तो पी-एच. डी. करने की बात मन में आयी और तुरन्त नाहटाजी को विषय पानेकी इच्छासे पत्र लिख दिया । लगभग एक सप्ताह बाद ही उनका उत्तर मुझे प्राप्त हो गया जिसमें शोध विषयों की एक अच्छी खासी तालिका दी हुई थी। मुझे बड़ा आश्चर्य इतना व्यस्त व्यक्ति उत्तर देने में इतना तत्पर कैसे है ।
हुआ कि
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अभी सन् १९६८ में कोल्हापुरमें प्राकृत संगोष्ठी हुई थी । वहां आपसे प्रथम भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ बड़े स्नेह और प्रेमसे वे गले मिले। काफी देर तक साहित्य के सन्दर्भ में विचार विमर्श हुआ । वे निःसन्देह शोध अजस्र प्रेरणा-स्रोत हैं। हम उनके स्वास्थ्य और दीर्घायु होनेकी कामना करते हैं ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २६१
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