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प्रदान की है और उनके आशीर्वाद से इस कार्य में जुट गया है। जैन संगीतके प्रति उत्पन्न मेरी इस रूझानने अब मुझे 'आनन्दघनजी महाराज' पर भी लेखनी उठानेको विवश किया है ।
देशके प्रकाण्ड विद्वान्का इतना मुझपर अनुग्रह ! मैं व्यग्र था उनके दर्शनोंके लिए। सहसा एक दिन क मित्र बोला-"श्री नाहटाजी उज्जैन आये हुए हैं और आपको याद किया है" मेरे हर्षकी सीमा नहीं थी। पहली बार दर्शन किये । बीकानेरी पगड़ी, लम्बाकोट, दोलंगी धोती। बातचीतसे यह पता नहीं लग रहा था कि किसी महापण्डितसे बात कर रहा हूँ या किसी एक सामान्य व्यापारीसे जो संकोच, शिष्टाचार और बातचीतका व्यवस्थित तारतम्य मैं मनमें जुटा कर ले गया था, वह उनके मिलते ही न जाने कहाँ काफूर हो गया। सादगी और सरलताको मैं मूर्तरूपमें देख रहा था । अपना वेश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृतिकी बात करने वाले तो बहुत देखे किन्तु श्री नाहटाजीको देखकर मुझ लग रहा था कि बात करना कुछ अलग होता है और आचरण करना कुछ अलग। उसी दिन शामको आपके सम्मानमें जैन समाजकी ओर से एक समारोह आयोजित किया गया । इस आयोजनमें जो विचार आपने प्रकट किये, उनसे मुझ आपकी उत्कट लगन, कठिन परिश्रम, अनन्य विद्यानुरागके बारेमें विस्तारसे प्रेरणास्पद जानकारी मिली।
श्री नाहटाजी से मेरी दूसरी भेंट हम्पी (मैसूर राज्य) में श्रीमद्राजचंद्रजी शताब्दी महोत्सव के अवसर पर हुई। स्व० श्री सहजानंदजी महाराजजीने दीपहर ३ से ४ का समय श्री नाहटा साहब के विचारों को सुननेके लिये नियत करा दिया था। उपस्थित विशाल समुदाय ने कई विकाश योजनाएं बनायीं व झकाव आमंत्रित किये। श्री नाहटाजी एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने सुझाव रखा कि श्रीमद् राजचन्द्रजीके साहित्यका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कराया जावे व उनका अधिकसे अधिक प्रचार किया जावे । मेरी समझमें यह सबसे महत्त्वका सुझाव था । जिस जैन महापुरुषने विश्ववन्द्य बापू का निर्माण किया उस महापु रुषका नाम विश्वके जन-जन के मुँहपर जहां होना चाहिये वहां जैन समाज के ही अधिकांश लोग नहीं जानते । यह कितने बड़े दुर्भाग्य की बात है। यह स्थिति प्रमाणित करती है कि हम लोग प्रचार कार्यमें कितने उदासीन हैं। मुझे खेद है कि श्री नाहटाजी के इतने महत्त्वपूर्ण सुझाव पर पूरी तरह अमल नहीं किया गया। हां, एकत्रित चन्देसे धर्मशाला बनवानेमें अवश्य संयोजकों ने विशेष रुचि ली।
श्री नाहटाजी साहब के विचारोंमें पूर्वाग्रह नहीं है । वे बदलते युगके साथ दौड़ लगाते हैं और जब तक उनकी वैचारिक दौड़ युगानुकूल चलती रहेगी, वे कभी बूढ़े नहीं हो सकते, सदैव युवा हैं ऐसा मानता हूँ। कहावत है-बड़े से बड़ा व्यक्ति वह है जो छोटी से छोटी बातका ध्यान रखता हो। सरस जैन भजनावली भाग ३ की प्रति मैंने भेजी तो तुरन्त मुझे सम्मति प्राप्त हुई, जिसमें श्री नाहटाजी ने लिखा"वास्तवमें फिल्मी विकार वर्द्धक गीतोंकी जगह ऐसे गीतोंका प्रचार होना ही चाहिए। फिल्मी तोंके गीत बनाते रहिए । पत्र-पत्रिकाओंमें भी छपवाते रहें, इससे प्रचार बढ़ेगा। आपका प्रयास सराहनीय है।"यह भजनावली फिल्मी गीतोंकी धुनपर आधारित है । कई विद्वान् पण्डित और आचार्य भी फिल्मी धुनोंको आधार बनाना हेय समझते हैं किन्तु वे ये नहीं जानते कि भजनों को सर्वाधिक लोकप्रिय बनाने तथा उनका प्रचार करनेके लिए फिल्मी धुनसे बढ़कर अन्य माध्यम नहीं हो सकता है । स्वनुभावके आधार पर मैं कह सकता हैं कि फिल्मी धुनों के आधार पर भी उत्तम काव्य रचना हो सकती है। धर्म प्रचारके लिए मेरे इस लघु कार्य को उपयोगी जानकर उन्होंने तुरन्त सम्मति भेज दी । अब बताइए. इस छोटेसे कार्य पर ध्यान देने वाला व्यक्ति क्यों नहीं महान होना चाहिए।
एक दो पुस्तकें लिख लेने पर जो लोग समझते हैं कि जीवनमें बहुत बड़ा काम कर लिया और २६० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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