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कुछ दिनोंके बाद साप्ताहिक पत्र 'श्वेताम्बर जैन' की प्रति मेरे पास आई । 'व्यक्ति दर्शन' स्तम्भके अन्तर्गत मैं अपना परिचय पढ़कर अवाक् रह गया और अधिक आश्चर्य तो यह देखकर हुआ कि उसके लेखक थे श्री अगरचन्दजी नाहटा । अखिल भारतीय क्या,अन्तर्राष्ट्रीय स्तरका विद्वान् कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी। ऐसा महान व्यक्ति मुझ अकिंचनके सम्बन्धमें समय निकालकर दो शब्द लिखे, यह मेरे लिये कम गौरवकी बात नहीं थी। उन्होंने 'श्वेताम्बर जैन' में लिखा-'उज्जैनके श्री प्यारेलाल श्रीमालके नाम एवं लेखोंसे तो मैं परिचित था पर एक बार अखिल भारतीय लोक संस्कृति सम्मेलनके अधिवेशनमें मुझे उज्जैन जाना पड़ा तो वहाँ श्री प्यारेलाल श्रीमालका एक निबन्ध 'लोक संगीत एवं शास्त्रीय संगीत के सम्बन्धमें सुननेको मिला। उससे उनके संगीत प्रेम व जानकारीसे मैं विशेष प्रभावित हआ। यद्यपि उनसे बातचीत करने का मौका वहाँ नहीं मिल सका पर उनकी आकृति और व्यवहारसे उनके व्यक्तित्वका कुछ आभास मिल गया । ""आवश्यकता है ऐसे छिपे हुए रत्नोंका समाजकी ओरसे उचित सम्मान किया जाये, उनसे लाभ उठाये और उन्हें आगे बढ़नेमें प्रोत्साहित करे।'
मेरे सम्बन्धमें इतने विस्तारसे जानकारी श्री नाहटा साहबको किसने दी होगी, जब मैंने यह विचार किया तो मुझे लगा कि फरवरी १९६२ के 'संगीत' में श्री शीतलकुमार माथुर 'संगीत प्रभाकर' द्वारा लिखित मेरी जीवनीसे उन्होंने सहायता ली होगी । बड़ी देर तक फिर मैं यह सोचता रहा कि जो व्यक्ति सैकड़ों दुर्लभ ग्रन्थोंके मनन चिन्तनमें व्यस्त है, जिसका मस्तिष्क सैकड़ों कठिन विषयोंकी सामग्रीका कोष बन चुका है, उसकी स्मरण शक्ति यह भी बतानेके लिए समर्थ है कि किस मासके किस पत्रमें संगीतके एक अदनेसे उपासक प्यारेलाल श्रीमालकी जीवनी छपी हुई है। श्री नाहटा साहबकी इस तीब्र स्मरण शक्तिका लोहा मानते हुए मुझे अपने उन सहपाठियोंपर तरस आया, जिनकी स्मतिसे मेरी शक्ल कुछ ही अरसा गुजरनेके बाद ओझल हो चुकी है।
'श्वेताम्बर जैन' को पढ़कर मेरे अभिभावक श्री सौभाग्यमलजी जैन वकीलने मुझे बताया कि मेरे निबन्धपठन वाले दिन शामको श्री नाहटा साहबसे उनकी भेंट हुई थी। श्री नाहटा साहबने प्राचीन ग्रन्थोंको देखनेकी तथा जैन समाजके प्रमख लोगोंसे मिलनेकी इच्छा प्रकट की। प्रमुख लोगोंमें किसीने स्थानीय मिल मालिकका नाम बताया। तब वे तुरन्त बोले-'मुझे ऐसे व्यक्तियोंसे मिलना है जो कलाकार हों, साहित्यकार हों, समाजसेवी हों।' तब श्री सौभाग्यमलजीने मेरा नाम सुझाते हुए कहा कि वे आज निबन्धपठनके बाद शाजापुर चले गये हैं।
समाजमें कलाकार, साहित्यकार, समाजसेवीकी इस प्रकार खोज करने वाले तथा उदीयमान प्रतिभाओंको प्रोत्साहन देने वाले श्री नाहटा साहबके समान जैन समाजमें कितने लोग मिलेंगे? आज भारतवर्ष में दूर-दूर से अनेक पण्डित और शोध-छात्र उनसे मार्ग दर्शन प्राप्त कर रहे हैं। श्री नाहटा साहब सच्चे अर्थोंमें एक जोहरी हैं । वे यत्रतत्र बिखरे रत्नोंकी परख जानते हैं। उनके अन्तरमें इस बातकी तड़प है कि इन रत्नोंका सही मूल्यांकन हो, सही उपयोग हो ताकि समाज और राष्ट्रका भला हो । यही कारण है कि उन्होंने बिना मेरे साक्षात्कारके, बिना किसी प्रकारके विशेष परिचयके मुझे पहचान लिया व मुझे प्रोत्साहन प्रदान किया।
वे केवल 'श्वेताम्बर जैन' में मेरा परिचय भेजकर ही चुप नहीं रहे, अपितु एक पत्र भी मुझे भेजा जिसमें उन्होंने लिखा कि आप जैन संगीत पर शोध कार्य कीजिए व तत्सम्बन्धी पार्श्वनाथ जैन संगीतसार, संगीतोपनिषद् सारोद्धार आदि ग्रन्थों के नाम भी सुझाये । इस अमूल्य प्रेरणाने मेरे जीवनको एक नई दिशा
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २५९
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