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आस्था रखनेवाले व्यक्ति हैं । प्रायः लोग स्वयं विद्वान् होते हैं, स्वयंके उन्नयनके लिए ग्रन्थ लिखते हैं और स्वयंके लिए ही धन व्यय आदि भी करते हैं। श्री नाहटाजीमें स्वयंकी अपेक्षा दूसरोंको विद्वान् देखनेका देवोपम गुण है । वे एक क्षणके लिए भी सम्पर्क में आये व्यक्तिको भूलते नहीं । प्रत्येक को बारीकी के साथ याद रखते हैं । मैं उनके प्रति जितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करूँ थोड़ी होगी, फिर उन्हें यह पसन्द भी नहीं है ।
उनके परिवार ने भी मुझे ऐसा अपनाया कि मैंने एक क्षणके लिए भी यह अनुभव नहीं किया कि मैं अपने घर से दूर हूँ । प्रायः लोगोंको अपने निजी रिश्तेदार भी एक ही दिनमें भार लगने लगते हैं फिर गैरोंको तो कौन पूछता है ? परन्तु नाहटाजी के घर में यह भेदक- रेखा मैंने नहीं देखी। एक दो दिनके बाद तो मैं स्वयं ही सहजतासे अपनी आवश्यकताकी सभी वस्तुएँ प्राप्त कर लेता था । स्नान, भोजन, चायपान आदिके लिए मुझे कोई बुलाये तभी जाऊँ, ऐसी बात न थी । नाहटाजी ने स्वयं ही कहा था 'आपका घर है, संकोच मत कीजिए ।"
आज मैं शुद्ध हृदयसे यह अनुभव करता हूँ कि नररत्न श्री अगरचन्दजी नाहटाके गुणोंका स्मरण करना, सचमुच स्वयं में कुछ बृहत्तर पा लेनेका ही एक भव्य प्रयास है । उनका अभिनन्दन कर उनको अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करनेका भव्य आयोजन शतशः प्रशंसनीय एवं औचित्यपूर्ण है ।
भारतकी शायद ही कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शोधपरक पत्रिका हो, जिसमें श्री नाहटाजी के महत्त्वपूर्ण एवं शोध परक लेख प्रकाशित न होते रहे हों ।
अन्त में मैं यही कहूँगा कि वे साधारण होते हुए भी असाधारण हैं, विद्वान् एवं परम शोधक होते हुए भी विनयी हैं और वयोवृद्ध होते हुए भी विचारों, भावनाओं तथा शोधवृत्ति के स्तरपर चिर युवा हैं । वे व्यक्ति होते हुए भी एक संस्था हैं, एक युग हैं ।
मेरे प्रेरणास्त्रोत
श्री प्यारेलाल श्रीमाल 'सरस'
एम० ए०, संगीत प्रवीण, वाद्य - विशारद,
२६ नवम्बर १९६१की सुबहका समय । उज्जैन में आयोजित अखिल भारतीय लोक संस्कृति सम्मेलनमें मैं सेमिनार में अपना निबन्ध 'शास्त्रीय एवं लोक संगीत - एक तुलनात्मक विवेचन' पढ़ रहा था । मुझे नहीं मालूम कि उपस्थित विद्वानोंमें स्वनामधन्य श्री अगरचन्दजी नाहटा भी हैं। मैं जब एम० ए० का छात्र था, तभी से उनके नामसे भलीभाँति परिचित हो चुका था व उनके प्रति श्रद्धावनत था । उनकी विद्वत्ताके प्रभावने मेरे मनपर उनकी कुछ ऐसी तस्वीर बना दी थी कि सूटबूटमें कोई रोबदार चेहरेवाला व्यक्ति होगा अथवा धोती कुर्ते वाला होगा तो भी गुरू गम्भीर भावमुद्राधारी चेहरे वाला होगा । इस कारण भी उस समय उन्हें अपनी सादी परम्परागत बीकानेरी पोशाक में पहचानना मेरे लिये सम्भव नहीं था । निबन्धवाचन के तत्काल पश्चात् मैं शाजापुर चला गया ।
२५८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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